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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 91/ मन्त्र 13
    ऋषिः - अरुणो वैतहव्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    इ॒मां प्र॒त्नाय॑ सुष्टु॒तिं नवी॑यसीं वो॒चेय॑मस्मा उश॒ते शृ॒णोतु॑ नः । भू॒या अन्त॑रा हृ॒द्य॑स्य नि॒स्पृशे॑ जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासा॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माम् । प्र॒त्नाय॑ । सु॒ऽस्तु॒तिम् । नवी॑यसीम् । वो॒चेय॑म् । अ॒स्मै॒ । उ॒श॒ते । शृ॒णोतु॑ । नः॒ । भू॒याः । अन्त॑रा । हृ॒दि । अ॒स्य॒ । नि॒ऽस्पृशे॑ । जा॒याऽइ॑व । पत्ये॑ । उ॒श॒ती । सु॒ऽवासाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमां प्रत्नाय सुष्टुतिं नवीयसीं वोचेयमस्मा उशते शृणोतु नः । भूया अन्तरा हृद्यस्य निस्पृशे जायेव पत्य उशती सुवासा: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाम् । प्रत्नाय । सुऽस्तुतिम् । नवीयसीम् । वोचेयम् । अस्मै । उशते । शृणोतु । नः । भूयाः । अन्तरा । हृदि । अस्य । निऽस्पृशे । जायाऽइव । पत्ये । उशती । सुऽवासाः ॥ १०.९१.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 91; मन्त्र » 13
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अस्मै प्रत्नाय-उशत) इस सनातन सदा एकरस वर्तमान सर्वहित कामना करनेवाले परमात्मा के लिए (इमां नवीयसीम्) इस अत्यन्त नवीन-शुद्ध (सुष्टुतिं वोचेयम्) सुन्दर स्तुति को बोलता हूँ-बोलूँ (नः शृणोतु) हमारे स्तुतिवचन को सुने (अस्य हृदि-अन्तरा) उसके हृदय के अन्दर (निस्पृशे भूयाः) नितान्त छूने के लिए-पहुँचने के लिये मैं समर्थ होऊँ (पत्ये सुवासा-जाया) पति के लिये सुन्दरवस्त्राभूषणयुक्त पत्नी (उशती-इव) कामना करती हुई की भाँति परमात्मा की कामना करता हूँ ॥१३॥

    भावार्थ

    परमात्मा नित्य एकरस सर्वहित चाहनेवाला है, उसकी निर्दोष स्तुति करनी चाहिये,  उसके अन्दर प्रविष्ट होने की कामना करनी चाहिये, जैसे पत्नी हृदय से पति की कामना करती है ॥१३॥

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    विषय

    अन्तस्तल से की जाती हुई स्तुति और प्रभु- सम्पर्क

    पदार्थ

    [१] (अस्मा उशते) = इस हमारे हित की कामना करनेवाले (प्रत्नाय) = सनातन पुरुष रूप प्रभु के लिए (इमाम्) = इस (नवीयसीम्) = अत्यन्त स्तुत्य (सुष्टुतिम्) = उत्तम स्तुति को (वोचेयम्) = मैं कहूँ । वे प्रभु (नः) = हमारी इस स्तुति को (शृणोतु) = सुनें । [२] यह स्तुति (अन्तरा हृदि) = हृदय के अन्तस्तल में होती हुई, अर्थात् दिल से की जाती हुई (अस्य निस्पृशे) = इस प्रभु के सम्पर्क के लिए (भूयाः) = [भूयात्] हो, (इव) = उसी प्रकार जैसे कि (उशती) = सदा हित की कामना करती हुई (सुवास:) = उत्तम वस्त्रोंवाली जाया पत्नी पति के हृदय में स्पर्श करनेवाली होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम दिल से प्रभु का स्तवन करें। यह स्तुति प्रभु के लिए प्रिय हो। हमारा प्रभु से यह सम्पर्क करानेवाली है।

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    विषय

    प्रभु के प्रति प्रेम का उद्रेक। पत्नी-प्रेमवत् प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम।

    भावार्थ

    मैं (अस्मै) इस (प्रत्नाय) अति पुरातन, सदातन, (उशते) सब के प्रिय, प्रभु की (इमां) इस (नवीयसीम्) अति उत्तम (सु-स्तुतिं) उत्कृष्ट स्तुति को (वोचेयम्) कहूं। वह (नः शृणोतु) हमारी स्तुति-प्रार्थना सुने। (पत्ये) पति के लिये (उशती) कामना वाली, (सु-वासाः) सुन्दर वस्त्र पहिने, ऋतुस्नाता (जाया इव) स्त्री के तुल्य मैं (अन्तरा) भीतर (अस्य हृदि) इसके हृदय में (नि-स्पृशे भूयाः) खूब स्पर्श करने, उसके हृदय के अन्तःस्तल तक पहुंचने वाला होऊं। अथवा प्रभु ! तू (अस्य) इस भक्त के (हृदि अन्तरा नि-स्पृशे भूयाः) हृदय के अन्तःस्तल तक स्पर्श करने वाला हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः अरुणो वैतहव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृज्जगती। २, ४, ५, ९, १०, १३ विराड् जगती। ८, ११ पादनिचृज्जगती। १२, १४ जगती। १५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूकम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अस्मै प्रत्नाय-उशते) एतस्मै सनातनाय सर्वदैकरसवर्त्तमानाय सर्वहितं कामयमानाय परमात्मने (इमां नवीयसीं सुष्टुतिं वोचेयम्) एतामतिशयेन नवीनां प्रत्यग्रां शोभनस्तुतिं प्रवदेयम् (नः शृणोतु) अस्माकं वचनं शृणुयात् (अस्य हृदि अन्तरा) अस्य हृदये मध्ये “अन्तरा मध्ये” [यजु० १६।२५ दयानन्दः] (निस्पृशे भूयाः) नितान्तं स्पर्शाय भवेयम् “व्यत्ययेन मध्यमः पुरुषः” (पत्ये सुवासा-जाया-इव-उशती) पत्ये सुन्दरवस्त्राभूषणयुक्ता जाया यथा कामयमाना भवति ॥१३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let me raise this new holy song of praise to the loving and gracious eternal Agni. May the Lord listen. And let it be like an inspiring creative poem full of love and passion in a beautiful form for the master, able to touch and move his heart within to bless me.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा नित्य एकरस सर्वांचे हित इच्छिणारा आहे. त्याची निर्दोष स्तुती केली पाहिजे. त्याच्यामध्ये प्रविष्ट होण्याची कामना केली पाहिजे. जशी पत्नी हृदयापासून पतीची कामना करते. ॥१३॥

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