ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 91/ मन्त्र 4
प्र॒जा॒नन्न॑ग्ने॒ तव॒ योनि॑मृ॒त्विय॒मिळा॑यास्प॒दे घृ॒तव॑न्त॒मास॑दः । आ ते॑ चिकित्र उ॒षसा॑मि॒वेत॑योऽरे॒पस॒: सूर्य॑स्येव र॒श्मय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽजा॒नन् । अ॒ग्ने॒ । तव॑ । योनि॑म् । ऋ॒त्विय॑म् । इळा॑याः । प॒दे । घृ॒तऽव॑न्तम् । आ । अ॒स॒दः॒ । आ । ते॒ । चि॒कि॒त्रे॒ । उ॒षसा॑म्ऽइ॒व । एत॑यः । अ॒रे॒पसः॑ । सूर्य॑स्यऽइव । र॒श्मयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजानन्नग्ने तव योनिमृत्वियमिळायास्पदे घृतवन्तमासदः । आ ते चिकित्र उषसामिवेतयोऽरेपस: सूर्यस्येव रश्मय: ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽजानन् । अग्ने । तव । योनिम् । ऋत्वियम् । इळायाः । पदे । घृतऽवन्तम् । आ । असदः । आ । ते । चिकित्रे । उषसाम्ऽइव । एतयः । अरेपसः । सूर्यस्यऽइव । रश्मयः ॥ १०.९१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 91; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (इळायाः-पदे) स्तुति के प्रसङ्ग में (तव) तेरे अपने (ऋत्वियं-योनिम्) यथासमय स्तोता के हृदयरूप घर (घृतवन्तम्) आर्द्र हावभाववाले को (प्रजानन्) भलीभाँति जानता हुआ (आसदः) प्राप्त हो (ते एतयः) तेरे प्राप्त होने की प्रतीतियाँ (उषसाम्-इव) उषाओं के समान (सूर्यस्य-अरेपसः-रश्मयः-इव) सूर्य की निर्दोष किरणों के समान (आ चिकित्रे) प्रतीत होती हैं ॥४॥
भावार्थ
जब परमात्मा की कोई स्तोता आर्द्र हावभाव भरे हृदय में स्तुति करता है, तो उषाओं के समान या सूर्यकिरणों के समान उसकी प्रतीतियाँ-दर्शन आभाएँ प्रतीत होने लगती हैं ॥४॥
विषय
प्रभु का निवास कहाँ ?
पदार्थ
[१] (अग्ने) = हे अग्रेणी प्रभो ! (प्रजानन्) = प्रकृष्टरूप से ज्ञानवाले होते हुए आप (तव योनिम्) = अपने निवासभूत [योनि=गृह] (ऋत्वियम्) = [ऋतु - light, splendine] प्रकाशमय और (इडायाः पदे) = वेदवाणी के आधार में (घृतवन्तम्) = मलों के क्षरण व ज्ञान की दीप्तिवाले हृदयदेश में (आसद:) = आसीन होते हो। एक उपासक का निर्मल हृदय ही आपका निवास-स्थान है। वह हृदय जो प्रकाशमय है और वेदवाणी को अध्ययन से निर्मल व ज्ञानदीप्त बना है। [२] हे प्रभो! (ते) = आपकी (एतयः) = प्राप्तियाँ [एति :- arrinal] (उषसां इव) = उषाओं के आगमनों की तरह (आचिकित्रे) = जानी जाती हैं। जिस प्रकार उषा के आने पर सदा अन्धकार दग्ध हो जाता है [उष दाहे ] इसी प्रकार हृदय में प्रभु के आसीन होने पर वासनाओं का सब अन्धकार समाप्त हो जाता है। [३] हे प्रभो ! आपके आगमन (अरेपस:) = सब दोषों को दूर करनेवाली (सूर्यस्य रश्मयः इव) = सूर्य की किरणों के समान हैं। जैसे सूर्य की किरणें सर्वत्र प्राणशक्ति का संचार करती हैं उसी प्रकार हृदय में प्रभु की प्राप्ति से शक्ति का अनुभव होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का वास निर्मल व ज्ञानदीप्त हृदयों में होता है। यह प्रभु का वास सब वासनान्धकार को विनष्ट कर देता है और हमारे जीवनों में प्राणशक्ति का संचार करता है।
विषय
अग्निवत् स्वयं प्रकाश आत्मा। गर्भ में प्रकट जीव के वा काष्ठ में अग्नि के तुल्य हृदय में आत्मा का प्रकट भाव।
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्निवत् स्वयंप्रकाश आत्मन् ! तू (प्रजानन्) सर्वोत्कृष्ट ज्ञानवान् होकर (इडायाः पदे) भूमि के स्थान पर (घृतवन्तं योनिम्) जिस प्रकार बीज जमता है, अग्नि जिस प्रकार भूमि पर घृतयुक्त काष्ठ में रहता है और जिस प्रकार (इडायाः) भूमि रूप स्त्री के देह में ऋतु-कालानुसार या निषिक्त वीर्य से युक्त गर्भ में आत्मा विराजता है उसी प्रकार जल युक्त स्थान में (ऋत्वियम्) ऋतु-अनुसार (इडायाः पदे) वाणी, अति प्रबलतर इच्छा के भक्ति द्वारा ज्ञान वा प्राप्त करने योग्य रूप में (ऋत्वियम्) ऋतु अर्थात् ज्ञानी पुरुषों से प्राप्त करने योग्य (घृतवन्तम्) प्रकाश व तेज से युक्त (योनिम्) स्वरूप को (आ असदः) प्राप्त है। (ते) तेरी (एतयः) मतियें, ज्ञान वा प्राप्तियें, (उषसाम् इव एतयः) उषाकालों के आगमनों के समान और (सूर्यस्य रश्मयः) सूर्य की किरणों के तुल्य (अरेपसः) निष्पाप, शुद्ध (चिकित्रे) जाने जाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः अरुणो वैतहव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृज्जगती। २, ४, ५, ९, १०, १३ विराड् जगती। ८, ११ पादनिचृज्जगती। १२, १४ जगती। १५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूकम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (इळायाः-पदे) स्तुतिवाचः पदे प्राप्तव्ये प्रसङ्गे (तव-ऋत्वियं योनिम्) स्वकीयं यथासमयं गृहं स्तोतृहृदयम् “योनिः गृहनाम” [निघं० ३।४] (घृतवन्तम्) आर्द्रहावभाववन्तम् (प्रजानन्) प्रकृष्टं जानन् सन् (आ असदः) आसीद (ते-एतयः) तव प्रापणप्रतीतयः (उषसाम्-इव) उषसः-इव “व्यत्ययेन प्रथमास्थाने षष्ठी छान्दसी” (सूर्यस्य-अरेपसः-रश्मयः-इव-आ चिकित्रे) सूर्यस्य निर्दोषाः प्रकाशमाना रश्मय इव प्रतीयन्ते ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lighted and refulgent, come and take your holy seat in the vedi prepared and sprinkled with ghrta according to the season on the floor of the yajnic earth. The light and flames of your arrival shine and appear like rise of the dawns, like rays of the sun, pure, immaculate, beatific.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा परमेश्वराचा प्रशंसक आर्द्र भावाने हृदयात स्तुती करतो तेव्हा उषेप्रमाणे किंवा सूर्यकिरणांप्रमाणे त्याची अनुभूती होते. ॥४॥
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