ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 91/ मन्त्र 3
सु॒दक्षो॒ दक्षै॒: क्रतु॑नासि सु॒क्रतु॒रग्ने॑ क॒विः काव्ये॑नासि विश्व॒वित् । वसु॒र्वसू॑नां क्षयसि॒ त्वमेक॒ इद्द्यावा॑ च॒ यानि॑ पृथि॒वी च॒ पुष्य॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽदक्षः॑ । दक्षः॑ । क्रतु॑ना । अ॒सि॒ । सु॒ऽक्रतुः॑ । अग्ने॑ । क॒विः । काव्ये॑न । अ॒सि॒ । वि॒श्व॒ऽवित् । वसुः॑ । वसू॑नाम् । क्ष॒य॒सि॒ । त्वम् । एकः॑ । इत् । द्यावा॑ । च॒ । यानि॑ । पृ॒थि॒वी इति॑ । च॒ । पुष्य॑तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुदक्षो दक्षै: क्रतुनासि सुक्रतुरग्ने कविः काव्येनासि विश्ववित् । वसुर्वसूनां क्षयसि त्वमेक इद्द्यावा च यानि पृथिवी च पुष्यतः ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽदक्षः । दक्षः । क्रतुना । असि । सुऽक्रतुः । अग्ने । कविः । काव्येन । असि । विश्वऽवित् । वसुः । वसूनाम् । क्षयसि । त्वम् । एकः । इत् । द्यावा । च । यानि । पृथिवी इति । च । पुष्यतः ॥ १०.९१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 91; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अग्ने) हे परमात्मन् ! तू (दक्षैः) अपने बलों से (सुदक्षः) सुबलवान् है (क्रतुना) अपने कर्म से (सुक्रतुः) उत्तम कर्मवाला है (काव्येन) जगद्रचनारूप कला-कौशल से (कविः) कलाकार है (विश्ववित् असि) विश्व को जाननेवाला है (वसूनां वसुः) बसानेवाले धनों का तू धनविशेषों से बसानेवाला है (त्वम् एकः-इत्) तू एक ही है (द्यावा-पृथिवी च) द्युलोक और पृथिवीलोक (यानि पुष्यतः) जिन भोग्य धनों को पुष्ट करते हैं, उनको तू ही पुष्ट करता है, अतः तू ही उपासनीय है ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा महान् बलवान्, महती कर्मशक्तिवाला कलाकार और ज्ञानी है, द्युलोक और पृथिवी के बीच में जितने भोग्य धन और साधन मिलते हैं, उनका वह ही उत्पन्न करनेवाला और देनेवाला है ॥३॥
Bhajan
तू अकेला ही
हे अग्ने ! हे तेजस्वी परमेश्वर ! तेरी
गुण-गाथा का मैं कहां तक गान करूं, तेरे महान गुण- कर्मों की सूची इतनी लम्बी है कि उसका वर्णन कर सकना मनुष्य की शक्ति से बाहर है। फिर भी तेरी कुछ विशेषताओं का गान करके मैं अपने आत्मा को पवित्र और धन्य कर रहा हूं।
हे परमपिता परमेश्वर! तुम दक्षों से 'सुदक्ष'
बने हुए हो। दक्षिण शब्द में दक्षता, आत्म बल, चातुर्य, किसी भी कार्य को तदुचित दी पूर्णता के साथ करने की शक्ति, वृद्धि आदि विविध बल संगृहित हैं। तुम इन समस्त बलों से सुबली बने हुए हो। तुम्हारे यह बल शुभ हैं, मनुष्य के उपकारक हैं,
किसी को उद्वेजित करने वाले नहीं है। हे देवाधिदेव ! तुम 'क्रतु' से 'सुक्रतु' हो। वैदिक क्रतु शब्द में ज्ञान, मेधा, प्रज्ञा, कर्म, यज्ञ, संकल्प आदि अर्थ निहित हैं। शुभ क्रतु वाले होकर तुम जन-जन को अपने उस क्रतु से लाभान्वित कर रहे हो।
हे जगदीश्वर ! तुम अपने काव्य से कभी बने हुए हो। काव्य वह कहलाता है जिसे सुनकर मनुष्य का तन, मन, आत्मा झूम उठे, रस से आप्लुत हो उठे। तुम्हारा वेद काव्य ऐसा ही चमत्कारिक है। तुम्हारे उस वेद काव्य का एक-एक मन्त्र, एक-एक पद ऐसे अर्थ वैविध्य को लिए हुए है, ऐसे अधिभूत अधिदैवत, अध्यात्म आदि अर्थों को मानस- पटल पर उतारने वाला है कि वैसा काव्य संसार में दुर्लभ है। ई सकल जगत के सृष्टा ! तुम 'विश्ववित'हो, सर्वज्ञ हो, तुममें किसी के मन की बात छिपी नहीं रहती, तुमसे संसार के किसी भी कोने में घटित होने वाली घटना अविदित नहीं रहती, किसी के द्वारा किए गए कोई भी कर्म अज्ञात नहीं रहते। सर्वज्ञ होकर ही तुम शक्ल आध्यात्मिक एवं भौतिक जगत का नियन्त्रण और संचालन कर रहे हो।
हे द्यावा-पृथ्वी के अधिष्ठाता ! द्यु-लोक और पृथ्वी-लोक मैं जो 'वसु'विद्यमान है, अद्भुत सम्पत्तियां निहित हैं, उन सबके निवास शक भी तुम्हीं हो। स्वर्ण- रजत आदि की खानें रत्नाकरों के विविध रत्न, अन्य अनेक विध खनिज पदार्थ सब तुम्हारी ही महिमा से स्थित होते हुए हमारे उप कारक बने हुए हैं। हे राजाधिराज ! तुम्हारे विषय में एक अद्भुत बात यह भी है कि तुम 'एक' ही हो, बिना किसी सहायक के अकेले सारे विश्व का सर्जन, नियमन, पालन आदि करते हो।
हे प्रभु ! तुम्हारी महिमा अपरम्पार है।
Vyakhya
वैदिक मन्त्र
सुदक्षो दक्षै क्रतुनामसि सुक्रतु,अग्ने कवि:
काव्येनासि विश्ववित्।
वसुर्वसूना क्षयसि त्वमेक इद्, द्यावा च यानि पृथिवी च पुष्यत:।।ऋ•१०.९१.३
वैदिक भजन ११२८वां
राग बृन्दावनी सारंग
गायन समय दिन का द्वितीय प्रहर
ताल अद्धा
भाग १
तेरे गुण, कीर्ति का
कितना परिमाण है
शक्ति कहां है इसे जोड़ूं ?
तेरे गुण- कर्म की सूची महान है
वर्णन क्या कर सकूं? क्या बोलूं?
तेरे गुण..........
फिर भी कुछ तेरी विशेषताओं का(२)
गान करके धन्य करूं आत्मा !
परमपिता परमेश्वर ! तुम तो सुदक्ष हो
महाबली सर्वबलदाता !
आत्मबल,चातुर्य,दक्षता,निपुणता
बाट कहां ? जिससे मैं तोलूं ।।
तेरे गुण..........
शुभ हैं तुम्हारे बल, सदा उपकारक(२)
करते ना भक्त को उद्वेजित
क्रतु से महान हो, तुम परम क्रतु हो(२)
क्रतुओं को करते हो आह्लदित
ज्ञान, मेधा, कर्म, प्रज्ञा,संकल्पों के धनी
ध्यान क्यों ना तेरी ओर मोडूं !
तेरे गुण........
भाग २
तेरे गुण कीर्ति का कितना परिमाण है
शक्ति कहां है इसे जोड़ू ?
तेरे गुण कर्मों की सूची महान है
वर्णन क्या कर सकूं ? क्या बोलूं ?
तेरे गुण----
हे जगदीश्वर ! तुम अपने काव्य के(२)
अनन्त काल के हो महाकवि !
काव्य ऐसा तन-मन झूमे, वो है वेद
वेद-काव्य का है रस अमी
एक-एक मन्त्र पद काव्यमय वेद तेरा
जान के मैं आत्मा में धरूं।।
तेरे गुण........
हे सकल जग-सृष्टा, तुम 'विश्वविद्' हो
तुझसे ना बात छुपी मन की
घटित घटना होने वाली
चाहे किसी कोने में
घटनाएं जाने प्रतिक्षण की
भौतिक अध्यात्मिक जग के नियंता
नियम तेरा कोई भी ना तोड़ूं ।।
तेरे गुण..........
द्यु: पृथ्वी अन्तरिक्ष में वसु विद्यमान है(२)
उसके निवासक तुम्हीं हो
स्वर्ण,रजत,रत्नकारक,उपकारक रत्नेन्द्र
राजाधिराज धनी हो
सकल जगके सर्जन,
पालन करते हो नियम
जगत चलाते हो सुचारू।।
तेरे गुण..........
५.७.२००२
१२.०० मध्यान्ह
शब्दार्थ:-
परिमाण = माप
सुदक्ष=अत्यन्त निपुण
दक्षता=योग्यता बड़ेति
उद्वेजित=व्यग्र, घबराया हुआ
आह्लदित=अतिप्रसन्न
मेधा=धारणावती बुद्धि
प्रज्ञा=ज्ञानवान बुद्धि, समझ
अमी=अमृत
विश्वविद=महापंडित
वसु=बसाने वाला
निवासक=आश्रय दाता
सुचारू=भली प्रकार,
रत्नेंद्र=रत्नों का धनी इन्द्र
घटित=घटी हुई (घटना)
वैदिक मन्त्रों के भजनों की द्वितीय श्रृंखला का १२१ वां वैदिक भजन ।
और प्रारम्भ से क्रमबद्ध अब तक का ११२८ वां वैदिक भजन
वैदिक संगीत प्रेमी श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं !
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विषय
'सुदक्ष सुक्रतु-कवि'
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (दक्षैः) = बलों से (सुदक्षः) = आप उत्तम बलवाले हो । तथा (क्रतना) = प्रज्ञान व बुद्धि से (सुक्रतुः) = उत्तम प्रज्ञान व बुद्धिवाले (असि) = हैं । तथा (काव्येन) = इस वेदरूप अजरामर काव्य से [पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति] (कविः) = क्रान्तदर्शी व क्रान्तप्रज्ञ (असि) = हैं, (विश्ववित्) = सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञान देनेवाले हैं। [२] (वसुः) = आप सर्वत्र वसनेवाले व सबको वसानेवाले हैं। (वसूनाम्) = निवास के लिये आवश्यक सब साधनों के व धनों के (त्वं एकः इत्) = आप अकेले ही (क्षयसि) = मालिक हैं [to be master of] । उन वसुओं के आप मालिक हैं (यानि) = जिन वसुओं का (द्यावा च पृथिवी च) = द्युलोक और पृथिवीलोक (पुष्यतः) = पोषण करते हैं। संसार के अन्तर्गत सब वसुओं के मालिक वे प्रभु ही हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही बलवान् व बुद्धिमान् हैं। वे ही सब ज्ञानों के देनेवाले हैं। तथा वे प्रभु ही सब वसुओं का पोषण करनेवाले हैं।
विषय
सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञानी, सर्वपोषक अद्वितीय।
भावार्थ
हे (अग्ने) सबके नायक, सबको सन्मार्ग में लेजाने हारे प्रभो ! तू (दक्षैः) सत्र बलों से (सु-दक्षः) उत्तम बलशाली है। तू (क्रतुना सु-क्रतुः असि) कर्म सामर्थ्य और प्रज्ञासामर्थ्य से उत्तम कर्म और प्रज्ञावाला है। तू (काव्येन) बुद्धिमान् जनों के उपयोगी ज्ञानमय वेद द्वारा ही (विश्ववित् कविः असि) समस्त संसार का जानने और जनाने हारा, क्रान्तदर्शी विद्वान् है। (यानि) जिन नाना ऐश्वर्यों को (द्यावा च पृथिवी च पुष्यतः) प्रकाशमय सूर्य, चन्द्र और पृथिवीवत् विस्तृत भूमि और आकाश दोनों पुष्ट करते हैं उन सब (वसूनां) ऐश्वर्यों और बसने वाले समस्त प्राणियों का भी (त्वम्) तू (एकः इत् क्षयसि) अकेला, अद्वितीय ही स्वामी है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः अरुणो वैतहव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृज्जगती। २, ४, ५, ९, १०, १३ विराड् जगती। ८, ११ पादनिचृज्जगती। १२, १४ जगती। १५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूकम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे परमात्मन् ! त्वं (दक्षैः-सुदक्षः) स्वबलैः-सुबलवान् (क्रतुना सुक्रतुः) स्वकर्मणा सुकर्मवान् (काव्येन कविः) स्वकौशलेन-जगद्रचनकलाकौशलेन कविः कलाकारः (विश्ववित्-असि) विश्ववेत्ताऽसि (वसूनां वसुः) वासयितॄणां धनानां योगेन त्वं वासयिता धनविशेषैरसि (त्वम्-एकः-इत्) त्वमेक एव (यानि द्यावापृथिवी च पुष्यतः) यानि वसूनि भोग्यधनानि द्यावापृथिव्यौ पुष्यतः सम्पादयतः तानि खल्वपि त्वमेव पुष्यसि सम्पादयसीत्यर्थः ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Refulgent Agni, generous with immense gifts, noblest performer by holy works, you are the omniscient poetic creator evidently by your cosmic poetry of existence. You alone dwell in the world as the highest Vasu of life shelters and living forms, and you are the master of all that the heaven and earth create and sustain.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा महाबलवान, महाकर्मशक्तिवान, कलाकार व ज्ञानी आहे. द्युलोक व पृथ्वी लोकांच्या मध्ये जितके भोग्य धन व साधने आहेत. ते उत्पन्न करणारा व देणारा आहे. ॥३॥
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