ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 91/ मन्त्र 9
त्वामिदत्र॑ वृणते त्वा॒यवो॒ होता॑रमग्ने वि॒दथे॑षु वे॒धस॑: । यद्दे॑व॒यन्तो॒ दध॑ति॒ प्रयां॑सि ते ह॒विष्म॑न्तो॒ मन॑वो वृ॒क्तब॑र्हिषः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । इत् । अत्र॑ । वृ॒ण॒ते॒ । त्वा॒ऽयवः॑ । होता॑रम् । अ॒ग्ने॒ । वि॒दथे॑षु । वे॒धसः॑ । यत् । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । दध॑ति । प्रयां॑सि । ते॒ । ह॒विष्म॑न्तः । मन॑वः । वृ॒क्तऽब॑र्हिषः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामिदत्र वृणते त्वायवो होतारमग्ने विदथेषु वेधस: । यद्देवयन्तो दधति प्रयांसि ते हविष्मन्तो मनवो वृक्तबर्हिषः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । इत् । अत्र । वृणते । त्वाऽयवः । होतारम् । अग्ने । विदथेषु । वेधसः । यत् । देवऽयन्तः । दधति । प्रयांसि । ते । हविष्मन्तः । मनवः । वृक्तऽबर्हिषः ॥ १०.९१.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 91; मन्त्र » 9
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने) हे परमात्मन् ! (त्वायवः) तुझे चाहते हुए (मनवः-वेधसः) मननशील मेधावी उपासक (अत्र विदथेषु) इन अध्यात्मप्रसङ्गों में (त्वाम्-होतारम्-इत्) तुझ स्वीकार करनेवाले देव को (वृणते) वरते हैं-चाहते हैं, (यत्) जिससे कि (देवयन्तः) तुझ सर्वसुखदाता को चाहते हुए (वृक्तबर्हिषः) सन्ततिसम्बन्ध को त्यागे हुए-गृहस्थ को त्यागे हुए वानप्रस्थ विरक्त विद्वान् (हविष्मन्तः) आत्मवान् अपने आत्मा को समर्पित करने के लिए प्रवृत्त (ते प्रयांसि दधति) तेरे लिए स्तुतिवचन धारण करते हैं ॥९॥
भावार्थ
बुद्धिमान् उपासक जन परमात्मा को ही अपना कमनीय इष्टदेव मानते हैं। वे गृहस्थ से उपराम होकर अपने को परमात्मा के प्रति समर्पित करने में लगे रहते हैं और परमात्मा की स्तुति करते रहते हैं ॥९॥
विषय
हविष्मान् - मनु-वृक्तवर्हिष्
पदार्थ
[१] (वेधसः) = ज्ञानी पुरुष (अत्र) = यहाँ (विदथेषु) = ज्ञानयज्ञों में, हे (अग्ने) = परमात्मन्! (त्वां इत्) = आपको ही (वृणते) = वरते हैं, प्रार्थना करते हैं । (त्वायवः) = आपको ही प्राप्त करने की कामना करते हैं। (होतारम्) = आपको ही वे सब आवश्यक चीजों का देनेवाला मानते हैं । [२] (यत्) = क्योंकि (देवयन्तः) = देव जो आप उन्हें अपनाना चाहते हुए वे (प्रयांसि) = उत्तम सात्त्विक अन्नों को व त्यागवृत्ति को (दधति) = धारण करते हैं, सो ते वे (हविष्यन्तः) = उत्तम हविवाले बनते हैं, त्यागपूर्वक अदन करनेवाले होते हैं, (मनवः) = सदा विचारशील होते हैं और (वृक्तबर्हिषः) = वासनारूप घास-फूस को उखाड़ देनेवाले होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्रभु का ही वरण करें । त्याग की भावना को धारण करते हुए 'हविष्मान्- मनु व वृक्तबर्हिष्' बनें।
विषय
सर्वस्तुत्य प्रभु।
भावार्थ
(यत्) जब (देवयन्तः) देव, सर्वसुखदाता, सर्वप्रकाशक प्रभु की कामना करने वाले, (हविष्मन्तः) अन्नादि नाना पदार्थों और साधनों से सम्पन्न, (वृक्त-बर्हिषः) विघ्नों को कुशाओं के तुल्य छेदन करने वाले, (मनवः) ज्ञानी पुरुष (प्रयांसि) नाना अन्नों और साधनों को धारण करते हैं (अत्र) इस अवसर में हे (अग्ने) प्रकाशस्वरूप अग्ने ! प्रभो ! (त्वायवः) तेरी कामना करने वाले, तुझे चाहने वाले, तेरे भक्त, (वेधसः) कर्मकर्त्ता, विद्वान् जन, (विदथेषु) ज्ञान सत्संगों और यज्ञों में (त्वाम् होतारं वृणते) तुझ दाता से प्रार्थना करते हैं।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः अरुणो वैतहव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृज्जगती। २, ४, ५, ९, १०, १३ विराड् जगती। ८, ११ पादनिचृज्जगती। १२, १४ जगती। १५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूकम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) परमात्मन् ! (त्वायवः) त्वत्कामाः त्वां कामयमानाः (मनवः-वेधसः) मननशीला मेधाविनः “वेधसः मेधाविनाम” [निघ० ३।१५] उपासकाः (अत्र विदथेषु) अध्यात्मप्रसङ्गेषु (त्वाम्-होतारम्-इत्-वृणते) त्वां स्वीकर्त्तारं हि वृण्वन्ति-प्रार्थयन्ते (यत्) यतः (देवयन्तः) त्वां सर्वसुखदातारं कामयमानाः (वृक्तबर्हिषः) वर्जितास्त्यक्ता प्रजा यैस्ते तथाभूता त्यक्तगृहस्थाः वानप्रस्था विरक्ता विद्वांसः “प्रजा वै बर्हिः” [का० १।५।३।१६] (हविष्मन्तः) आत्मवन्तः स्वात्मानं समर्पयितुं प्रवृत्ता वा “आत्मा वै हविः” [काठ० ८।५] (ते प्रयांसि दधति) तुभ्यं प्रीतिवचनानि स्तुतिवचनानि “प्रयः प्रीतिकारकं वचः” [ऋ० १।१३२।३ दयानन्दः] धारयन्ति ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, here in the world, your loving devotees, wise sages, thoughtful people, choose to worship you, high priest of yajna, when dedicated to divinity and the divine potentials of nature, having spread the holy grass on the vedi and bearing sacred havi, they offer their dearest fragrant oblations to you.
मराठी (1)
भावार्थ
बुद्धिमान उपासक लोक परमात्म्यालाच आपला रमणीय इष्टदेव मानतात. ते विरक्त होऊन परमात्म्याला समर्पित होऊ लागतात व परमात्म्याची स्तुती करतात. ॥९॥
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