ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 91/ मन्त्र 8
ऋषिः - अरुणो वैतहव्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
मे॒धा॒का॒रं वि॒दथ॑स्य प्र॒साध॑नम॒ग्निं होता॑रं परि॒भूत॑मं म॒तिम् । तमिदर्भे॑ ह॒विष्या स॑मा॒नमित्तमिन्म॒हे वृ॑णते॒ नान्यं त्वत् ॥
स्वर सहित पद पाठमे॒धा॒ऽका॒रम् । वि॒दथ॑स्य । प्र॒ऽसाध॑नम् । अ॒ग्निम् । होता॑रम् । प॒रि॒ऽभूत॑मम् । म॒तिम् । तम् । इत् । अर्भे॑ । ह॒विषि॑ । आ । स॒मा॒नम् । इत् । तम् । इत् । म॒हे । वृ॒ण॒ते॒ । न । अ॒न्यम् । त्वत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मेधाकारं विदथस्य प्रसाधनमग्निं होतारं परिभूतमं मतिम् । तमिदर्भे हविष्या समानमित्तमिन्महे वृणते नान्यं त्वत् ॥
स्वर रहित पद पाठमेधाऽकारम् । विदथस्य । प्रऽसाधनम् । अग्निम् । होतारम् । परिऽभूतमम् । मतिम् । तम् । इत् । अर्भे । हविषि । आ । समानम् । इत् । तम् । इत् । महे । वृणते । न । अन्यम् । त्वत् ॥ १०.९१.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 91; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(तम्) उस (मेधाकारम्) मेधा के आविष्कारकर्त्ता-मेधाप्रद (विदथस्य प्रसाधनम्) अनुभवनीय अध्यात्मयज्ञ के प्रसाधक (होतारम्) तथा स्वीकार करनेवाले (परिभूतमम्) सर्वाधिष्ठाता (मतिम्) मेधावी (अग्निम्) परमात्मा को (इत्) ही (अर्भे हविषि) अल्प ग्रहण करने योग्य लौकिक भोग सुख के निमित्त (महे) महान् ग्रहण करने योग्य मोक्ष आनन्द के लिए (तम्-इत्-समानम्-इत्) उस परमात्मा को यथावत् सादर ही (आ वृणते) मनुष्य भली-भाँति वरते हैं-प्रार्थित करते हैं (त्वत्-अन्यं-न) हे परमात्मन् ! तुझसे भिन्न को नहीं वरते हैं ॥८॥
भावार्थ
परमात्मा बुद्धि देनेवाला है और अध्यात्मयज्ञ का साधनेवाला-सफल करनेवाला है, सर्वधिष्ठाता है, सांसारिक भोग सुख तथा महान् मोक्ष सुख देनेवाला है, उससे आदर के साथ उपासक जन अपने कल्याणार्थ प्रार्थना करते हैं, अन्य से नहीं ॥८॥
विषय
बुद्धि व ज्ञान के दाता प्रभु
पदार्थ
[१] (तं इत्) = उस प्रभु को ही (वृणते) = उपासक वरते हैं। जो प्रभु (मेधाकारम्) = हमारे में मेधा का सम्पादन करनेवाले हैं, (विदथस्य) = ज्ञान को (प्रसाधनम्) = सिद्ध करनेवाले हैं। इस प्रकार बुद्धि और ज्ञान के द्वारा (अग्निम्) = हमें आगे ले चलनेवाले हैं, (होतारम्) = उन्नति के लिए सब आवश्यक साधनों को देनेवाले हैं। मार्ग में आनेवाले विघ्नों को (परिभूतमम्) = अधिक से अधिक परिभूत करनेवाले हैं। [२] (तं मतिम्) = उस ज्ञानस्वरूप प्रभु को (इत्) = ही (अर्भे) = छोटे (हविषि) = यज्ञ में और उसे ही (महे) = महान् यज्ञ में [वृणते] वरण करते हैं। उस प्रभु से ही इन यज्ञों के साधन के लिए हम प्रार्थना करते हैं। (सं आनम्) = सम्यक् आनित प्रणित करनेवाले प्रभु की ही प्रार्थना करते हैं, त्वत् अन्यं न तेरे से भिन्न की नहीं । आपकी प्रार्थना करते हुए हम इन यज्ञों को आपसे ही होता हुआ जानते हैं, हमें इनके करने का गर्व नहीं होता ।
भावार्थ
भावार्थ- सब यज्ञ उस प्रभु से ही हो रहे हैं, वे ही हमें बुद्धि व ज्ञान देते हैं।
विषय
तेजोमय, ज्ञानमय, प्रभु का वरण। उसीसे प्रार्थना।
भावार्थ
हम लोग (मेधाकारं) उत्तम बुद्धि के उत्पन्न करने वाले, ज्ञान और सन्मति के देने वाले, (विदथस्य प्र-साधनं) ज्ञान, लाभ, और यज्ञ की उत्तम रीति से साधना करने वाले, (होतारं) सब सुखों के देने वाले वा प्रेम से सबको अपने पास बुलाने वाले, (परि-भूतमं) सर्वत्र व्यापक, सब से महान् (मतिं) ज्ञान-स्वरूप (अग्निम्) तेजःस्वरूप प्रभु को हम (आ वृणीमहे) वरण करते हैं, उसी से सब वस्तुओं की याचना करते हैं। (समानम् इत्) हम उसे ही सर्वत्र सब के प्रति समान जानते हैं और (तम् इत् अर्भे हविषि) उसको ही अल्प से अल्प पदार्थ के निमित्त में भी प्रार्थना करते हैं। (महे) और महान् पदार्थ या कर्मफलादि के निमित्त भी (तम् इत् वृणते) उस ही की प्रार्थना करते हैं। हे प्रभो ! (त्वत् अन्यं न वृणते) तेरे से भिन्न दूसरे को ये विद्वान् लोग नहीं वरते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः अरुणो वैतहव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृज्जगती। २, ४, ५, ९, १०, १३ विराड् जगती। ८, ११ पादनिचृज्जगती। १२, १४ जगती। १५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूकम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(तम्) तं खलु (मेधाकारम्) प्रज्ञाया आविष्कर्त्तारं (विदथस्य प्रसाधनम्) वेदनस्य-अनुभवनीयस्य-अध्यात्मयज्ञस्य “विदथानि वेदनानि” [निरु० ६।७] “विदथो यज्ञनाम” [निघ० ३।१७] प्रसाधयितारम् (होतारम्) अध्यात्मयज्ञस्य स्वीकर्त्तारं (परिभूतमम्) सर्वाधिष्ठातारं (मतिम्) मेधाविनम् “मतयः मेधाविनाम” [निघ० ३।१५] (अग्निम्) परमात्मानम् (इत्) एव (अर्भे हविषि) अल्पे “अर्भाय अल्पाय” [ऋ० १।१४६।५ दयानन्दः] ग्रहीतव्ये लौकिकभोगसुखनिमित्ते (महे) महते ग्रहीतव्ये मोक्षानन्दाय (तम्-इत्-समानम्-इत्) तं परमात्मानं यथावत् सादरमेव (आ वृणते) जनाः समन्तात् वृण्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति-प्रार्थयन्ते (त्वत्-अन्यं न) परमात्मन् ! त्वद्भिन्नं न ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Devotees choose to worship Agni alone, none other than Agni, giver of intelligence, accomplisher of yajna and education for knowledge, high priest of yajnic existence, supreme over all, omniscient wise, and equally loving for all, whether the havi offered is small or great, whether the purpose is high or low. O lord of light, they choose none other than you.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा बुद्धी देणारा आहे व अध्यात्मयज्ञ सफल करणारा आहे. तो सर्वाधिष्ठाता आहे. सांसारिक भोग सुख व महान मोक्ष सुख देणारा आहे. उपासक आपल्या कल्याणासाठी त्याची आदरपूर्वक प्रार्थना करतात. इतराची नाही. ॥८॥
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