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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 11
    ऋषिः - उर्वशी देवता - पुरुरवा ऐळः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ज॒ज्ञि॒ष इ॒त्था गो॒पीथ्या॑य॒ हि द॒धाथ॒ तत्पु॑रूरवो म॒ ओज॑: । अशा॑सं त्वा वि॒दुषी॒ सस्मि॒न्नह॒न्न म॒ आशृ॑णो॒: किम॒भुग्व॑दासि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज॒ज्ञि॒षे । इ॒त्था । गो॒ऽपीथ्या॑य । हि । द॒धाथ॑ । तत् । पु॒रू॒र॒वः॒ । मे॒ । ओजः॑ । अशा॑सम् । त्वा॒ । वि॒दुषी॑ । सस्मि॑न् । अह॑न् । न । मे॒ । आ । अ॒शृ॒णोः॒ । किम् । अ॒भुक् । व॒दा॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जज्ञिष इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओज: । अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणो: किमभुग्वदासि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जज्ञिषे । इत्था । गोऽपीथ्याय । हि । दधाथ । तत् । पुरूरवः । मे । ओजः । अशासम् । त्वा । विदुषी । सस्मिन् । अहन् । न । मे । आ । अशृणोः । किम् । अभुक् । वदासि ॥ १०.९५.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 11
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    यहाँ से केवल गृहस्थ विषय है, (पुरूरवः) हे बहुत शुभ बोलनेवाले ! (इत्था) सत्य तू (गोपीथ्याय हि जज्ञिषे) गृहस्थ रसपान के लिये अवश्य समर्थ है (मे-ओजः-दधाथ) मेरे में पुत्रोत्पत्तिविषयक सामर्थ्य-वीर्य को धारण कराता है (विदुषी त्वा-अशासम्) मैं विदुषी होती हुई तुझे कहती हूँ (सस्मिन्-अहन्) सब दिन में-सारे दिन में (मे न-अशृणोः) मेरे लिये नहीं सुनता है-स्वीकारता है (किम्-अभुक्-वदासि) क्या तू अभोक्ता हुआ या अरक्षक हुआ बोलता है ॥११॥

    भावार्थ

    सच्ची सदाचारिणी पत्नी पति को गृहस्थ जीवन की मर्यादा बतावे-सुझावे कि गृहस्थ आश्रम केवल भोग का आश्रम नहीं है, सन्तानोत्पत्ति के लिये है, केवल कामवासना पूरी करने के पीछे न पड़ना चाहिये। ठीक है, पति भोग का भूखा है, परन्तु पुत्र का इच्छुक होने से कामवासना दुःख का निमित्त नहीं, केवल कामवासना दुःखदायक है ॥११॥

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    विषय

    पत्नी की बातों को उपेक्षित न करना

    पदार्थ

    [१] उर्वशी अपने दोहद काल के समय [pregnancy] अपने मातृकुल में चली जाती है । स्पष्ट है कि पुरुरवा से वह प्रसन्न नहीं। पुरुरवा उसे लिवा लाने के लिए आते हैं। तो उर्वशी उपालम्भ देती हुई कहती है कि मैं (विदुषी) = गर्भिणी अवस्था की सब बातों को खूब समझती हुई (समस्मिन् अहन्) = सब दिनों (त्वा) = आपको (अशासम्) = आवश्यक बातें कहती रही, आवश्यक चीजों को जुटाने का संकेत करती रही। [२] मैं यह समय-समय पर कहती ही रही कि आप (इत्था) = इस प्रकार वर्तने से (हि) = निश्चयपूर्वक (गोपीथ्याय) = [गो-भूमि] भूमिरूप स्त्री की रक्षा के लिए [पीथंरक्षणम्], जिस भूमि में मनुष्य बीज का वपन करते हैं, उसकी रक्षा के लिए, जज्ञिषे होते हैं । हे पुरुरवः ! यह भी मैंने आपको कहा कि इस प्रकार आप (तत् मे ओजः) = मेरे उस ओज को, शक्ति को (दधाथ) = स्थिरता से धारण करनेवाले होते हैं। [३] मैंने यह सब कुछ कहा, परन्तु आपने (मे न अशृणोः) = मेरी बात को नहीं सुना। आपने मेरी बातों को मूर्खतापूर्ण समझा और ध्यान नहीं दिया । सो अब (अभुक्) = न पालन करनेवाले (किं वदासि) = क्या व्यर्थ में कहते हैं ! ये सब बातें व्यर्थ हैं, अब मेरा विचार यहीं रहने का है।

    भावार्थ

    भावार्थ- दोहदकाल में पत्नी की इच्छाओं का विशेषरूप से पूरण आवश्यक है। सामान्यतः 'पत्नी को गृह की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कभी परेशानी न उठानी पड़े' यह पति का आवश्यक कर्त्तव्य है ।

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    विषय

    सेना का सेनापति के प्रति हित वचन।

    भावार्थ

    (इत्था) इस प्रकार तू (गोपीथ्याय हि जज्ञिषे) भूमि की रक्षा करने और इन्द्रियों वा वाणी के लिये समर्थ हो। हे (पुरु-रवः) बहुतों का शासक वा जितेन्द्रिय ! (हि) क्योंकि (मे) मेरे (तत् ओजः दधाथ) तू उस पराक्रम को धारण कर मैं (सस्मिन् अहनि) सब दिन (विदुषी) जानती हुई, ज्ञान वाली होकर (त्वा अशासन) तुझको अनुशासन करती हूं। परन्तु तू (मे न अशृणोः) मेरा वचन नहीं सुनता। (अभुक्) पालन समर्थ न होकर (किं वदासि) तू क्या कह सकता है ? अतः तू मेरा वचन-कथन श्रवण कर और पालक होकर प्रजा पर शासन कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    इतः केवलं गार्हस्थ्यमुच्यते (पुरूरवः) हे बहु शुभवादिन् ! (इत्था) सत्यं त्वं (गोपीथ्याय हि जज्ञिषे) सोमरसपानाय गार्हस्थ्यरसपानाय प्रसिद्धो जातो हि (मे-ओजः-दधाथ) मयि पुत्रोत्पत्तिविषयकं सामर्थ्यं वीर्यं धारयसि (विदुषी त्वा-अशासम्) विदुषी सती त्वामहं शास्मि कथयामि (सस्मिन्-अहन्) समस्मिन् सर्वस्मिन् दिने “मकारलोपश्छान्दसः” (मे न-आशृणोः) मह्यं न शृणोषि न स्वीकरोषि (किम्-अभुक्-वदासि) किं त्वमभोक्ताऽरक्षकः सन् वदसि ? ॥११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Pururava, you are born and destined for the protection of earth and promotion of life. Pray bear and command the lustre of life for me. Educated and cultured in the art of home life, I advised you day in and day out, pray listen to me. What can you say if you do not serve life and mother earth? Nothing.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    खऱ्या सदाचारिणी पत्नीने पतीला गृहस्थ धर्माची मर्यादा सांगावी की गृहस्थाश्रम केवळ भोगाचा आश्रम नाही, संतानोत्पत्तीसाठी आहे. केवळ कामवासना पूर्ण करण्याकडे लक्ष नसावे. पती भोगाचा भोक्ता आहे; परंतु तो पुत्राचाही इच्छुक असल्यामुळे कामवासना दु:खाचे निमित्त नाही. केवळ कामवासना मात्र दु:खदायक आहे. ॥११॥

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