ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 8
सचा॒ यदा॑सु॒ जह॑ती॒ष्वत्क॒ममा॑नुषीषु॒ मानु॑षो नि॒षेवे॑ । अप॑ स्म॒ मत्त॒रस॑न्ती॒ न भु॒ज्युस्ता अ॑त्रसन्रथ॒स्पृशो॒ नाश्वा॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसचा॑ । यत् । आ॒सु॒ । जह॑तीषु । अत्क॑म् । अमा॑नुषीषु । मानु॑षः । नि॒ऽसेवे॑ । अप॑ । स्म॒ । मत् । त॒रस॑न्ती । न । भु॒ज्युः । ताः । अ॒त्र॒स॒न् । र॒थ॒ऽस्पृशः॑ । न । अश्वाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सचा यदासु जहतीष्वत्कममानुषीषु मानुषो निषेवे । अप स्म मत्तरसन्ती न भुज्युस्ता अत्रसन्रथस्पृशो नाश्वा: ॥
स्वर रहित पद पाठसचा । यत् । आसु । जहतीषु । अत्कम् । अमानुषीषु । मानुषः । निऽसेवे । अप । स्म । मत् । तरसन्ती । न । भुज्युः । ताः । अत्रसन् । रथऽस्पृशः । न । अश्वाः ॥ १०.९५.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्) जब (सचा) साथ मिलकर (अत्कम्) उस आततायी अत्ता सम्भोगी नाशक व्यभिचारी दस्यु को देखकर (आसु जहतीषु) इन घर या राष्ट्र छोड़ जानेवाली स्त्रियाँ या प्रजाओं में (अमानुषीषु) मनुष्य सम्पर्करहित पवित्र आचरणवालियों में (मानुषः-भुज्युः-ताः-निषेवे) मैं मनुष्यों में श्रेष्ठ पालक पति या मनुष्यों का राजा पालक उन स्त्रियों या प्रजाओं की निरन्तर सेवा रक्षा करूँ, अतः (मत् स्म) मेरे पास से (अपतरसन्ती) व्याध के भय से भागती हुई हरिणी की भाँति (न-अत्रसन्) न भय करे-उस व्यभिचारी या दस्यु से घबराकर न भागे (रथस्पृशः-अश्वाः-न) रथ में युक्त जुड़े घोड़ों के समान पत्नियाँ या प्रजाएँ घर या राष्ट्र का वहन करें ॥८॥
भावार्थ
बलात् सम्भोग करनेवाले व्यभिचारी या दस्यु घरों में राष्ट्र में घुसे देखकर पवित्र स्त्रियाँ या प्रजाएँ भय से जब भागने लगें, तो पति और राजा पूर्ण आश्वासन देकर उनकी रक्षा करे और घर में राष्ट्र में स्थिर रहने का प्रबन्ध करे, उन दुष्टों को दण्ड दे ॥८॥
विषय
क्रियाशीलता को न छोड़ना
पदार्थ
[१] पुरुरवा कहते हैं कि स्त्री को भी अपना सौम्य मानुषरूप छोड़ना नहीं चाहिए। इसके छोड़ने पर पुरुष उसको कितनी भी अनुकूलता का सम्पादन करने का प्रयत्न करे, वो पुरुष से दूर ही हटती जाती हैं उससे बिदक - सी जाती हैं । (यदा) = जब (आसु) = इन स्त्रियों के (आकम्) = [आ सातत्पगमने] निरन्तर क्रियाशीलता के स्वभाव को (जहतीषु) = छोड़ते हुए होने पर और इस प्रकार आराम व विषयों में फँस जाने पर (अमानुषीषु) = अमानुष व क्रूर स्वभाववाला हो जाने पर (मानुषः) = एक मनुष्य (सचा) = इनके साथ रहनेवाला होकर, इनका जीवन सखा बनकर (सिषेवे) = सब प्रकार से इनकी सेवा करता है, तो भी यह स्त्री (भुज्युः) = तृण चरती हुई (तरसन्ती न) = मृगी के समान (मत्) = मेरे से (अप स्म) = डरकर दूर भागती है। (ताः) = वे तो इस प्रकार (अत्रसन्) = उद्विग्न होकर दूर हटने की करती हैं (न) = जैसे कि (रथस्पृशः अश्वाः) = रथ का स्पर्श करनेवाले (अश्वाः) = घोड़े । रथ में जोते जाते हुए घोड़े बिदक उठते हैं । इसी प्रकार ये स्त्रियाँ कार्य के उपस्थित होने पर उद्विग्न हो उठती हैं। वे कार्य न करके आराम में रहती हैं, क्रोध के स्वभाववाली होकर पुरुष के लिए परेशानी का कारण बनती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- स्त्री क्रियाशील बनी रहकर क्रोध आदि से ऊपर उठी रहे। तभी वह पति के साथ अनुकूलता से चल पाती है।
विषय
सेना-सेनानायक के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(यत्) जब (सचा) एक साथ (जहतीषु) शस्त्रादि छोड़ती वा जाती हुई (आसु अमानुषीषु) इन साधारण मनुष्यों से भिन्न, प्रबल, मननशील वा अविवेकयुक्त सेनाओं के ऊपर (मानुषः भुज्युः) मननशील रक्षक सेनापति मैं (अत्कं निषेवे) अपने मुख्य रूप वा अधिकार का सेवन करूं तब वे (तरसन्ती न) मृगी के समान (यत् अप अत्रसन्) मेरे से भयभीत हों अथवा (रथ-स्पृशः अश्वाः न) रथ में लगे घोड़ों के तुल्य भय से शासन में रहें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्) यदा (सचा) सह मिलित्वा (अत्कम्) तमाततायिनमत्तारं नाशकं व्यभिचारिणं दस्युं वा द्रष्ट्वा (आसु जहतीषु) एतासु गृहं राष्ट्रं वा त्यजन्तीषु स्त्रीषु प्रजासु वा (अमानुषीषु) परमनुष्यसम्बन्धरहितासु “अमानुषम्-मनुष्यसम्बन्धरहितम्” [ऋ० २।११।१० दयानन्दः] (मानुषः भुज्युः-निषेवे) अहं मनुष्याणां श्रेष्ठो राजा वा पालकः ताः-नितरां सेवे रक्षेयं (मत् स्म-अपतरसन्ती) मत्तः मत्सकाशात् खलु अपप्लवनं कुर्वती ‘अत्र सिप् सहितं शतरि रूपं स्त्रियाम् मृगीसमाना व्याधाद् भयं कुर्वाणा यथा पलायते तथा “अत्र लुप्तोपमावाचकालङ्कारः” (न-अत्रसन्) न भयं कुर्युः “त्रस् उद्वेगे” [दिवादि०] (रथस्पृशः-अश्वाः-न) रथयुक्ताः-अश्वाः सारथेरधीने रथं यथावद् वहन्ति प्रवर्तन्ते तथा गृहपत्नी राष्ट्रप्रजा वा गृहं राष्ट्रं वा वहेत्-चालयेत् ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When Pururava, the mighty cloud, takes over earthly form and joins the unearthly forms of nature after they have given up their natural super-human character, they, which earlier had feared him like the game fearing the hunter, do not fear him as horses joined to the chariot do not fear the master.
मराठी (1)
भावार्थ
जबरदस्तीने संभोग करणाऱ्या व्यभिचारी किंवा दस्यू घरात किंवा राष्ट्रात घुसताना पाहून पवित्र स्त्रिया किंवा प्रजा भयभीत झाल्यास पती व राजाने पूर्ण आश्वासन देऊन त्यांचे रक्षण करावे व घरात किंवा राष्ट्रात स्थिर राहण्यासाठी व्यवस्था करावी व दुष्टांना दंड द्यावा. ॥८॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal