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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 7
    ऋषिः - उर्वशी देवता - पुरुरवा ऐळः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सम॑स्मि॒ञ्जाय॑मान आसत॒ ग्ना उ॒तेम॑वर्धन्न॒द्य१॒॑: स्वगू॑र्ताः । म॒हे यत्त्वा॑ पुरूरवो॒ रणा॒याव॑र्धयन्दस्यु॒हत्या॑य दे॒वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । अ॒स्मि॒न् । जाय॑माने । आ॒स॒त॒ । ग्नाः । उ॒त । ई॒म् । अ॒व॒र्ध॒न् । न॒द्यः॑ । स्वऽगू॑र्ताः । म॒हे । यत् । त्वा॒ । पु॒रू॒र॒वः॒ । रणा॑य । अव॑र्धयन् । द॒स्यु॒ऽहत्या॑य । दे॒वाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समस्मिञ्जायमान आसत ग्ना उतेमवर्धन्नद्य१: स्वगूर्ताः । महे यत्त्वा पुरूरवो रणायावर्धयन्दस्युहत्याय देवाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । अस्मिन् । जायमाने । आसत । ग्नाः । उत । ईम् । अवर्धन् । नद्यः । स्वऽगूर्ताः । महे । यत् । त्वा । पुरूरवः । रणाय । अवर्धयन् । दस्युऽहत्याय । देवाः ॥ १०.९५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अस्मिन् जायमाने) इस पुरूरवा वा-बहुत प्रशंसक-बहुत शासक पतिरूप से तथा प्रजापतिरूप से हो जाने पर (ग्नाः) कुलभार्याएँ या प्रजाएँ (सम् आसत) सङ्गत होती हैं (उत-ईम्) और इसको (स्वगूर्ताः-नद्यः) स्वगतिवाली नदियों के समान वे स्त्रियाँ या प्रजाएँ (अवर्धन्) बढ़ाती हैं तथा (पुरूरवः) हे बहुत शुभ वक्ता बहुत कल्याण के आदेष्टा (यत्) जब कि (त्वा) तुझे (देवाः) विद्वान् ऋत्विग् या पुरोहित (दस्युहत्याय) क्षीण करनेवाले व्यभिचारी या दस्यु का हनन करने के लिए (रणाय) संग्राम के लिए (अवर्धयन्) बढ़ाते हैं-बढ़ावा देते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    विवाह संस्कार में जब स्त्री का पति बन जाता है अथवा राजसूययज्ञ में प्रजापति बन जाता है तो उसे पारिवारिक स्त्रियाँ या राष्ट्र की प्रजाएँ सङ्गत होकर नदियों के समान-नदियाँ जैसे राष्ट्र को समृद्ध करती हैं-बढ़ावा देती हैं-इसी प्रकार पुरोहित और ऋत्विक् घर में घुसनेवाले या राष्ट्र में घुसनेवाले नाशकारी व्यभिचारी तथा दस्यु को हनन करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिये ॥७॥

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    विषय

    ग्नाः - नद्यः - स्वगूर्ता:

    पदार्थ

    [१] उर्वशी कहती हैं कि हे (पुरुरवः) = प्रभु का स्तवन करनेवाले पतिदेव ! (यत्) = जब (त्वा) = आपको (देवाः) = सब देव (महे रणाय) = महत्त्वपूर्ण इस अध्यात्म संग्राम के लिए, काम-क्रोधादि से चलनेवाले संग्राम के लिए (अवर्धयन्) = बढ़ाते हैं और (दस्युहत्याय) = दास्यव वृत्तियों के नाश के लिए समर्थ करते हैं तो उस समय इस प्रकार (अस्मिन्) = इस पति के (संजायमाने) = सम्यक् विकास- वाला होने पर (आसत) = पत्नियाँ भी ठीक से घर में बैठती हैं, अर्थात् घर में स्थिर होकर रहती हैं। पति के क्रोधादि के वशीभूत होने पर पत्नी का घर पर रहना कुछ कठिन-सा हो जाता है । [२] इस प्रकार शान्त वातावरण में रहती हुई ये पत्नियाँ (ग्नाः) = देवपत्नियाँ होती हैं, इनका ज्ञान प्राप्ति की ओर झुकाव होता है व्यर्थ की गपशप में न पड़कर ये खाली समय को स्वाध्याय में बिताती हैं । यह स्वाध्याय उनमें दिव्यता की वृद्धि का कारण बनता है। पति देव बनेगा, तो पत्नी देवपत्नी होगी ही । (उत) = और इस प्रकार की पत्नियाँ (ईम्) = निश्चय से (अवर्धन्) = पति की भी वृद्धि का कारण बनती हैं। (नद्यः) = [नदिः=स्तोता] ये प्रभु स्तवन की वृत्तिवाली होती हैं और (स्वगूर्ता:) = अपने कार्यों में उद्यमनवाली बनती हैं, अपने सब कार्यों को श्रम से करती हुई उन कार्यों में ही आनन्द का अनुभव लेती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-पति क्रोधी न हों तो पत्नी 'स्वाध्यायशील स्तवन की वृत्तिवाली व स्वकर्मनिपुण' बनती है। इससे घर सुन्दर बनता है, वह बढ़ता चलता है।

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    विषय

    रणनायक के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (पुरूरवः) महान् कीर्त्तियुक्त ! (यत्) जब (त्वा) तुझे (देवाः) विजयोत्सुक वीर पुरुष (दस्यु-हत्याय) शत्रुओं को हनन करने के निमित्त रण के लिये (अवर्धयन्) बढ़ावें तब (अस्मिन् जायमाने) इसके प्रकट होने पर (ग्नाः सम् अवर्धयन्) वाणियां वा प्रजाएं और पुरुषाधीन स्त्रियों के तुल्य उसके आश्रय (सम् आसत) मिल कर रहें, (उत) और मिल कर और (उत) उसको (स्वगूर्त्ताः) स्वयं उद्यमशील (नद्यः) समृद्ध प्रजाएं बढ़ावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अस्मिन् जायमाने) अस्मिन् पुरूरवसि जायमाने पतिरूपेण जायमाने प्रजाप्रतित्वेन जायमाने सम्पद्यमाने (ग्नाः-सम् आसते) कुलभार्याः “ग्नाः स्त्रीणाम्” [निरु० ३।२१] प्रजा वा सङ्गच्छन्ते (उत-ईम्) अपि-इमं (स्वर्गूताः-नद्यः-अवर्धयन्) स्वगतिमत्यो नद्यः-इव ताः स्त्रियः प्रजा वा “लुप्तोपमावाचकालङ्कारः” वर्धयन्ति प्रत्यक्षकृतमुच्यते (पुरूरवः) हे बहुशुभवक्तः ! बहु कल्याणादेष्टः ! (यत्) यत् (त्वा) त्वां (देवाः) विद्वांसः-ऋत्विजः पुरोहिता वा (दस्युहत्याय) पूर्वोक्ताय व्यभिचारिणो दस्योर्वा हननाय (रणाय-अवर्धयन्) संग्रामाय वर्धयन्ति ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When this roaring cloud is formed or when the sun is risen for the day, then many forces like divine consorts of nature join and, self-energised and fluent like showers of rain and streams of water, exalt it. O Pururava, then the devas too, brilliant divinities of nature and humanity, prepare and exalt you for the mighty battle against want and darkness to destroy evil from nature and society.$(The metaphor of natural forces here may be said to touch the field of human society. Many divine, natural and human forces join in the wedding of the young man and in the investiture of the ruler in his office. Both are like the cloud formed for showers and like the sun risen for the day, and the function of both is to dispel want and darkness from nature and society.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विवाहसंस्कारानंतर स्त्रीला पती प्राप्त होतो व राजा राजसूर्य यज्ञात प्रजापती बनतो. तेव्हा पारिवारिक स्त्रिया किंवा राष्ट्राची प्रजा नद्याप्रमाणे राष्ट्राला समृद्ध करतात. त्याच प्रकारे पुरोहित व ऋत्विकांनी घरी घुसणाऱ्या किंवा राष्ट्रात घुसणाऱ्या नाश करणाऱ्या व्यभिचारी व दस्यू यांचे हनन करण्यासाठी प्रोत्साहित करावे. ॥७॥

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