Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 95 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 15
    ऋषिः - उर्वशी देवता - पुरुरवा ऐळः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पुरू॑रवो॒ मा मृ॑था॒ मा प्र प॑प्तो॒ मा त्वा॒ वृका॑सो॒ अशि॑वास उ क्षन् । न वै स्त्रैणा॑नि स॒ख्यानि॑ सन्ति सालावृ॒काणां॒ हृद॑यान्ये॒ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुरू॑रवः । मा । मृ॒थाः॒ । मा । प्र । प॒प्तः॒ । मा । त्वा॒ । वृका॑सः । अशि॑वासः । ऊँ॒ इति॑ । क्ष॒न् । न । वै । स्त्रैणा॑नि । स॒ख्यानि॑ । स॒न्ति॒ । सा॒ला॒वृ॒काणा॑म् । हृद॑यानि । ए॒ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरूरवो मा मृथा मा प्र पप्तो मा त्वा वृकासो अशिवास उ क्षन् । न वै स्त्रैणानि सख्यानि सन्ति सालावृकाणां हृदयान्येता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुरूरवः । मा । मृथाः । मा । प्र । पप्तः । मा । त्वा । वृकासः । अशिवासः । ऊँ इति । क्षन् । न । वै । स्त्रैणानि । सख्यानि । सन्ति । सालावृकाणाम् । हृदयानि । एता ॥ १०.९५.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 15
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पुरूरवः) हे बहुवादी ! (मा मृथाः) मत मर (मा प्र पप्तः) मत कहीं खड्डे आदि में प्रपतन कर-गिर, (मा त्वा) मत मुझे (अशिवासः) अहितकर (वृकासः) भेडिएँ मांसभक्षक (उ क्षन्) अवश्य खा जावें (न वै) न ही (स्त्रैणानि) स्त्रीसम्बन्धी (सख्यानि) सखी भाव-स्नेह (सन्ति) स्थिर होते हैं अर्थात् कल्याणकर नहीं होते हैं (एता) ये तो (सालावृकाणाम्) वेग से आक्रमण करनेवाले भेड़ियों के (हृदयानि) हृदय कैसे क्रूर हैं-हानिकर हैं ॥१५॥

    भावार्थ

    मनुष्य कामी बनकर आत्महत्या कर लेते हैं, अपने को मांस खानेवाले पशुओं तक समर्पित कर देते हैं, ऐसा नहीं करऩा चाहिए, यह जीवन की सफलता नहीं और स्त्रियों में आसक्ति से कामवश स्नेह स्थायी नहीं होते हैं, अपितु आक्रमणकारी भेड़ियों के हृदय जैसे जीवन नष्ट करानेवाले होते हैं, किन्तु  सद्गृहस्थ बनकर पुत्र उत्पत्ति-पुत्रोत्पादन का लक्ष्य रखें ॥१५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उर्वशी का उपालम्भ

    पदार्थ

    [१] पुरुरवा की शपथें सुनकर उर्वशी कहती है कि हे (पुरुरवा:) = बहुत बात करनेवाले [रु शब्दे ] (मा मृथाः) = आप मरिये नहीं । (मा प्रपप्तः) = दुर्गति में भी न गिरिये । (उ) और (त्वा) = आपको (अशिवासः) = अकल्याणकारी (वृकासः) = भेड़िये (माक्षन्) = मत खायें। आपको ऐसी आपत्तियाँ क्यों आयें ? [२] कुछ उपालाम्भ के स्वर में उर्वशी कहती है कि (स्त्रैणानि सख्यानि) = स्त्रियों की मित्रताएँ तो (वै) = निश्चय से (न सन्ति) = होती ही नहीं। ('एता') = ये तो (हृदयानि) = हृदय (सालावृकाणाम्) = बन्दरों के हैं, अर्थात् अत्यन्त चंचल हैं' ये शब्द उर्वशी अपने हृदय की ओर इशारा करती हुई कहती है । [३] वस्तुतः उर्वशी को कहीं से ऐसा सुन पड़ा कि पुरुरवा ऐसा कहते थे कि 'स्त्रियों की क्या मित्रता, ये तो बड़े चञ्चल हृदय की होती हैं'। बस तभी से उर्वशी का मन फट गया। अन्य घटनाएँ भी उसे इसी विचार की पोषक प्रतीत हुईं और वह अपने मातृगृह को चली गई।

    भावार्थ

    भावार्थ- 'पत्नी के विषय में किसी अन्य व्यक्ति से आलोचनात्मक शब्द कहना' वैमनस्य का सबसे बड़ा कारण होता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उसे दुष्ट कुटिल पुरुषों से सावधान रहने का उपदेश।

    भावार्थ

    हे (पुरु-रवः) बहुतों के शासक ! तू (मा मृधाः) मृत्यु को प्राप्त न हो, (मा पप्तः) दूर मत जा। तू मत भाग । (अशिवासः वृकासः) अकल्याणकारी वृक, चोर भेड़िये के स्वभाव के पुरुष (मा उ क्षन्) तुझे न खावें, तेरा न करें। तू स्मरण रख, (स्त्रैणानि सख्यानि) स्त्री आदि भोग्य पदार्थों को उद्देश्य करके किये गये मैत्री आदि कार्य (न वै सन्ति) वास्तविक नहीं होते (एता) वे तो (सालावृकाणां) जंगली कुत्तों या भेड़ियों के (हृदयानि) हृदयों के तुल्य छल और क्रूरतादि से पूर्ण होते हैं। राज्य-समृद्धि आदि के लिये सन्धि आदि करके भी लोग एक दूसरे के प्राण-घात की योजना करते हैं। अतः सावधान होकर निर्व्यसन होकर रह।

    टिप्पणी

    ‘मृथाः’ इति पदपाठः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पुरूरवः-मा मृथाः) हे बहुवादिन् ! त्वं न म्रियस्व (मा प्र पप्तः) न क्वचित् प्रपतनं कुरु (मा त्वा-अशिवासः-वृकासः-उ क्षन्) न त्वामहितकरा वृका मांसभक्षकाः पशवो भक्षयेयुः, “घस्लृ भक्षणे अस्य लुङि रूपम्” यतः (न वै स्त्रैणानि सख्यानि सन्ति) न निश्चयेन स्त्रीसम्बन्धीनि सख्यानि स्थिराणि कल्याणकराणि भवन्ति, (एता सालावृकाणां हृदयानि) इमानि सख्यानि तु गतिशीलच्छेदकानाम् “षल गतौ” [भ्वादि०] कर्त्तरि णः प्रत्ययश्छान्दसः ‘सालाश्च ते-वृकाश्च सालवृकाः’ तेषां पशूनां हृदयानि-इव दुःखदायीनि भवन्ति ॥१५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Pururava, let this never be: do not die, never fall, never must cursed wolves devour you, such are not the loves and friendships of women. It is only women of wolfish heart that deceive and betray the covenant.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसे कामी बनून आत्महत्या करतात. स्वत:ला मांस खाणाऱ्या पशूंनाही समर्पित करतात. असे करता कामा नये. ही जीवनाची सफलता नाही व स्त्रियांमध्ये आसक्तीने असलेला स्नेह स्थायी नसतो. एवढेच नव्हे तर आक्रमणकारी लांडग्याच्या हृदयाप्रमाणे जीवन नष्ट करणारा असतो. त्यासाठी सद्गृहस्थ बनून पुत्र उत्पत्ती पुत्रोत्पादनाचे लक्ष्य ठेवावे. ॥१५॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top