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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 13
    ऋषिः - उर्वशी देवता - पुरुरवा ऐळः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्रति॑ ब्रवाणि व॒र्तय॑ते॒ अश्रु॑ च॒क्रन्न क्र॑न्ददा॒ध्ये॑ शि॒वायै॑ । प्र तत्ते॑ हिनवा॒ यत्ते॑ अ॒स्मे परे॒ह्यस्तं॑ न॒हि मू॑र॒ माप॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ । ब्र॒वा॒णि॒ । व॒र्तय॑ते । अश्रु॑ । च॒क्रन् । न । क्र॒न्द॒त् । आ॒ऽध्ये॑ । शि॒वायै॑ । प्र । तत् । ते॒ । हि॒न॒व॒ । यत् । ते॒ । अ॒स्मे इति॑ । परा॑ । इ॒हि॒ । अस्त॑म् । न॒हि । मू॒र॒ । मा॒ । आपः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रति ब्रवाणि वर्तयते अश्रु चक्रन्न क्रन्ददाध्ये शिवायै । प्र तत्ते हिनवा यत्ते अस्मे परेह्यस्तं नहि मूर माप: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति । ब्रवाणि । वर्तयते । अश्रु । चक्रन् । न । क्रन्दत् । आऽध्ये । शिवायै । प्र । तत् । ते । हिनव । यत् । ते । अस्मे इति । परा । इहि । अस्तम् । नहि । मूर । मा । आपः ॥ १०.९५.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 13
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (प्रति ब्रवाणि) पुनः कहती हूँ (चक्रन्) क्रन्दन करता हुआ--रोता हुआ (न) सम्प्रति (अश्रु) आसुओं को (वर्तयते) वर्तेगा-बहायेगा (क्रन्दन) क्रन्दन करता हुआ रोता हुआ (शिवायै) कल्याण करनेवाली माता के लिये (आध्ये) स्मरण करेगा-चिन्तन करेगा (ते) तेरा (तत्) वह सन्तान-पुत्र (अस्मे) हमारे पास है (प्रति हिनव) तुझे सौंप दूँ-देदूँ, तेरे पास न रहेगा रोएगा ही मुझ माता के बिना, अतः (अस्तं परा-इहि) मेरे साथ गृह-सद्गृहस्थाश्रम को प्राप्त हो (मूर) मेरे बिना मुग्धजन ! (मा) मुझे (न हि) नहीं (आपः) प्राप्त करेगा, यदि जार होकर मेरी कामना करेगा, यह धर्म नहीं, अतः तुझे जारकर्म न करना चाहिये ॥१३॥

    भावार्थ

    कामुक जार मनुष्य के पास उससे उत्पन्न पुत्र न ठहरेगा, क्योंकि उसने पुत्रभाव से उसे उत्पन्न नहीं किया, उसके लिये पुत्रस्नेह न होगा। ऐसे जार व्यभिचारी के साथ कुमारी को सम्बन्ध न जोड़ना चाहिए, वह कभी सच्चा स्नेह नहीं कर सकता है, सद्गृहस्थ रहने की प्रेरणा दे, बिना सद्गृहस्थ के उसका साथ न करे ॥१३॥

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    विषय

    सन्तान पर अधिकार पिता का

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र की बात सुनकर उर्वशी कहती है कि (प्रति ब्रवाणि) = मैं आपकी बात का उत्तर इन शब्दों में देती हूँ कि यह आपका पुत्र (चक्रन्) = क्रन्दन करता हुआ (अश्रु न वर्तयते) = आँसू नहीं बहायेगा। यदि रोयेगा तो (आध्ये शिवायै) = किसी आध्यात शिव वस्तु के लिए ही तो रोयेगा । उस वस्तु की इसे यहाँ कमी न रहेगी और यह रोयेगा क्यों ? [२] और यह भी है कि (यत्) = जो (ते) = आपका (अस्मे) = हमारे पास ऋण के रूप में है (तत्) = उसे (ते) = तेरे प्रति (प्रहिनवा) = मैं अवश्य भेज दूँगी। आपका पुत्र आपके पास पहुँच जाएगा। (अस्तं परेहि) = आप घर को लौट जाइये। हे (मूर) = नासमझी की बात करनेवाले! आप अब (मा) = मुझे (नहि आप:) = नहीं प्राप्त कर सकते ।

    भावार्थ

    भावार्थ - यदि पति पत्नी जुदा ही हो जाते हैं, तो सन्तान पिता की ही है।

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    विषय

    प्रयाणोद्यत सेनापति के प्रति सेना का हित वचन।

    भावार्थ

    प्रजा या सेना प्रयाण के लिये उद्यत सेनापति वा राजा के प्रति कहती है—हे (मूर) शत्रुनाशक ! सेनापते ! (अहं ते प्रति ब्रवाणि) मैं तुझे प्रतिक्षण कहती हूं कि (चक्रन् न) रोते हुए मनुष्य के समान (अश्रु वर्त्तयते) आंसू बहाती है और (क्रन्दत्) रोती हुई (शिवायै आध्ये) कल्याण की कामना करती है, (यत् ते अस्मे) जो तेरा हम में हित है मैं प्रजागण (तत् ते प्रहिनव) उसे मैं तेरे लिये प्रदान करती हूं। तू (अस्तं परा इहि) गृह पर फिर वापिस आना, यदि वापिस नहीं आवेगा तो तू (मा नहि आपः) मुझ प्रजाजन को फिर नहीं प्राप्त करेगा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (प्रति ब्रवाणि) प्रतिवदामि-उत्तरं ददामि (चक्रन् न-अश्रु वर्तयते) क्रन्दमानः सम्प्रति सोऽश्रूणि वर्तयति-वर्तयिष्यति (क्रन्दत्-शिवायै-आध्ये) रोत्स्यति तदा कल्याणकारिण्यै मात्रे-आध्यास्यति-चिन्तयिष्यति (ते तत्-अस्मे प्रति हि नव) तव तदपत्यमस्माकं-मम पार्श्वे यत् तुभ्यं प्रति प्रेरयामि-प्रतिददामि, परन्तु तव पार्श्वे न स्थास्यति रोत्स्यति हि मया मात्रा विना अतः (अस्तं परा-इहि) मया सह गृहं सद्गृहस्थाश्रमं प्राप्नुहि (मूर या न हि-आपः) मया विना मुग्ध ! त्वं मां नहि प्राप्स्यसि यदि जारः सन् मा कामयिष्यसे नहि धर्मोऽयमतो जारकर्म त्वया न कर्तव्यम् ॥१३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And I say to you, Pururava, by way of warning: if the untoward happens in case of separation, the child would come to you crying, in tears, yearning for consolation and comfort. I would send him to you who is now ours and spurn you off: O fool, impetuous, infructuous man, go off your way, I am not for you!

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कामुक जार माणसाजवळ त्याच्याकडून उत्पन्न झालेला पुत्र राहणार नाही. कारण त्याने त्याला पुत्र भावाने उत्पन्न केलेले नसते. त्याला पुत्रस्नेह नसतो. अशा जार व्यभिचारी बरोबर कुमारीचा संबंध जोडता कामा नये. तो कधी खरे प्रेम करू शकत नाही. सद्गृहस्थ बनण्याची त्याला प्रेरणा द्यावी. सद्गृहस्थ बनल्याशिवाय त्याची साथ करू नये. ॥१३॥

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