ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 9
यदा॑सु॒ मर्तो॑ अ॒मृता॑सु नि॒स्पृक्सं क्षो॒णीभि॒: क्रतु॑भि॒र्न पृ॒ङ्क्ते । ता आ॒तयो॒ न त॒न्व॑: शुम्भत॒ स्वा अश्वा॑सो॒ न क्री॒ळयो॒ दन्द॑शानाः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । आ॒सु॒ । मर्तः॑ । अ॒मृता॑सु । नि॒ऽस्पृक् । सम् । क्षो॒णीभिः । क्रतु॑ऽभिः । न । पृ॒ङ्क्ते । ताः । आ॒तयः॑ । न । त॒न्वः॑ । शु॒म्भ॒त॒ । स्वाः । अश्वा॑सः । न । क्री॒ळयः॑ । दन्द॑शानाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदासु मर्तो अमृतासु निस्पृक्सं क्षोणीभि: क्रतुभिर्न पृङ्क्ते । ता आतयो न तन्व: शुम्भत स्वा अश्वासो न क्रीळयो दन्दशानाः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । आसु । मर्तः । अमृतासु । निऽस्पृक् । सम् । क्षोणीभिः । क्रतुऽभिः । न । पृङ्क्ते । ताः । आतयः । न । तन्वः । शुम्भत । स्वाः । अश्वासः । न । क्रीळयः । दन्दशानाः ॥ १०.९५.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 9
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्) जब (आसु-अमृतासु) इन अमृत सुख देनेवाली स्त्रियों या प्रजाओं में (निस्पृक्-मर्तः) नियम से स्पृहा करता हुआ-इच्छा करता हुआ पत्नी का पति या प्रजा का स्वामी राजा (क्षोणीभिः) विविध मधुर शब्दों द्वारा या राष्ट्रभूमिभागों द्वारा (क्रतुभिः) रक्षाकर्म द्वारा (संपृङ्क्ते) सम्पर्क करता है (ताः) वे स्त्रियाँ या प्रजाएँ (आतयः-न) कपिञ्जल-तित्तिर पक्षियों के समान मधुर बोलती हुईं उस पति या राजा के लिए (स्वाः) अपने (तन्वः) शरीरों को (शुम्भत) शोभित करती हैं अथवा आत्मभावों को समर्पित करती हैं (दन्दशानाः) हँसते हुए (क्रीडयः) खेलते हुए (अश्वासः-न) घोड़ों के समान अपने को शोभित करती हैं ॥९॥
भावार्थ
स्त्रियाँ या प्रजाएँ अमृत सुख देनेवाली होती हैं, पति या राजा नियमित रक्षा करता हुआ मधुर शब्दों या भूभागों से श्रेष्ठ रक्षा कर्म द्वारा उनसे सम्पर्क करता है, तो वे भी मधुरभाषी पक्षी के समान मधुर बोलती हुईं अपने शरीरों को सुशोभित करती हैं या आत्मभाव को प्रकट करती हैं और सुन्दर हिनहिनाते घोड़े के समान हँसती और खेलती हैं, ऐसी स्त्रियों और प्रजाओं की रक्षा करनी चाहिये ॥९॥
विषय
'पति का प्रेम' व 'पत्नी का उत्साह'
पदार्थ
[१] उर्वशी कहती है कि (यदा) = जब (मर्तः) = मनुष्य (अमृतासु) = वैषयिक वस्तुओं के पीछे न मरकर केवल पति के प्रेम को चाहनेवाली (आसु) = इन पत्नियों में (निस्पृक्) = नि:शेषेण [adhese ] सम्पर्कवाला होता है, जब वह (क्षोणीभिः) = [क्षु शके] = [ वाग्भिः सा० ] वाणियों से, (न) = इसी प्रकार (क्रतुभिः) = कर्मों से या संकल्पों से (संपृक्ते) = पत्नी के साथ ही सम्पर्कवाला होता है, अर्थात् 'मनसा वाचा कर्मणा' वह पत्नी का ही हो जाता है, और जब उसका प्रेम किसी अन्य स्त्री के लिए नहीं होता, तब (ताः) = वे पत्नियाँ (आतयः न) = आति नामक सुन्दर पंखोंवाले पक्षी के समान (स्वाः तन्वः सुम्भत) = अपने शरीरों को शोभित करती हैं। वे प्रसन्न मनोवृत्तिवाली होती हैं और वह प्रसन्नता उनकी वेशभूषा में प्रकट होती है। 'आतयः ' शब्द में क्रियाशीलता की भी भावना है। उनका जीवन खूब उत्साहपूर्वक कर्मों में लगा हुआ होता है। पति का प्रेम उनके जीवन में स्फूर्ति का संचार करता है। [२] ये (दन्दशाना:) = जिह्वा से ओष्ठप्रान्तों को काटते से हुए (अश्वासः न) = शक्तिशाली घोड़ों के समान (क्रीडय:) = सारे कार्यों को क्रीड़क की मनोवृत्ति से करनेवाली होती हैं। शक्तिशाली घोड़ा आलस्यमय स्थिति में खड़ा नहीं रह सकता। ये गृहिणियाँ भी उस प्रेम के वातावरण में शक्ति व स्फूर्ति का अनुभव करती हैं और पूर्ण उत्साह से गृहकार्यों में व्यापृत रहती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- पति का पूर्ण प्रेम प्राप्त करने पर पत्नी का हृदय उत्साह से पूर्ण होता है और स्फूर्ति-सम्पन्न होकर ये गृह कार्यों में व्यापृत होती हैं ।
विषय
सेना, सेनापतियों के तुल्य नायक और वधू आदि के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(यत्) जब (आसु अमृतासु) कभी नाश न होने वाली इन प्रजाओं और सेनाओं पर (निस्पृक् मर्त्तः) खूब स्नेहवान्, शत्रुमारक, बलवान् सेनापति (क्षोणीभिः) उत्तम वाणियों (न) और (क्रतुभिः) कर्मों से (पृंक्ते) सम्पर्क करता, स्नेह प्रकट करता है, (ताः) वे (आतयः न) गृहपत्नियों के तुल्य (स्वाः तन्वः शुम्भत) अपने २ देहों को अलंकृत करें। और (दंदशानाः) दांतों से लगाम को काटते हुए (अश्वासः न) घोड़ों के समान (क्रीडयः) नाना प्रकार की क्रीड़ा, विनोद करती और सन्मार्ग में चलती हैं। (२) [ यदि नकारः प्रतिषाधार्थः ] (यत् आसु निःस्पृक् न पृङ्क्ते) जब वह मनुष्य उनमें निस्पृह होकर उन में स्नेह नहीं करता, तब वे गृहपत्नियों के तुल्य ही (तन्वः न शुम्भन्त) अपने को नहीं सजाती, और (न क्रीडयः) न खेलती, विनोद करती और (आतयः न दंदशानाः) व्याधियों के समान कष्टकारी पीड़ादायक होती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्-आसु-अमृतासु) यदा-एतासु-अमृत-सुखप्रदासु स्त्रीषु (निस्पृक्-मर्तः) नियमेन स्पृहां कुर्वन् जनः पत्न्यः पतिः प्रजापतिः (क्षोणीभिः-क्रतुभिः-न सम्पृक्ते) विविधं मधुरशब्दैः “क्षु शब्दे” [अदादि०] ततः ‘निः’ प्रत्यय औणादिकः राष्ट्रभूभागेर्वा “क्षोणिः पृथिवीनाम” [निघ० १।१] अथ च रक्षाकर्मभिः “क्रतुः कर्मनाम” [निघ० २।१] सम्पर्कं करोति (ताः-आतयः-न) ताः स्त्रियः प्रजाः कपिञ्जलपक्षिण इव मधुरं भाषमाणाः “अज्यतिभ्यां च इन् प्रत्ययः” [उणादि० ४।१३१ तित्तिरिभेदः दयानन्दः] “तथा च-आतिः पक्षिविशेषः” [यजु० २४।३४ दयानन्दः] तस्मै पतये राज्ञे वा (स्वाः-तन्वः शुम्भत) स्वानि शरीराणि शोभयन्ति यद्वा आत्मभावान् समर्पयन्ति (दन्दशानाः-क्रीडयः-अश्वासः-न) दंशमानाः दन्तान् दर्शयमानाः क्रीडयन्तोऽश्वा इव स्वात्मानं शोभयन्ति ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When the mortal Puruava loving these immortal beings joins them with loving words as well as with noble actions, then they, like swans playing in water, shine and show their bodies like horses playing with the bridle in their teeth.
मराठी (1)
भावार्थ
स्त्रिया किंवा प्रजा अमृतसुख देणाऱ्या असतात. पती किंवा राजा नियमित इच्छा करत मधुर शब्द किंवा भूभागाद्वारे श्रेष्ठ रक्षण करून त्यांच्याशी संपर्क करतात. तेव्हा स्त्रिया व प्रजा पक्ष्याप्रमाणे मधुर बोलत आपल्या शरीराला सुशोभित करून आत्मभाव प्रकट करतात व सुंदर खिंकळणाऱ्या घोड्यांप्रमाणे हसणाऱ्या, खेळणाऱ्या स्त्रिया व प्रजा यांचे रक्षण केले पाहिजे. ॥९॥
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