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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 3
    ऋषिः - पुरूरवा ऐळः देवता - उर्वशी छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इषु॒र्न श्रि॒य इ॑षु॒धेर॑स॒ना गो॒षाः श॑त॒सा न रंहि॑: । अ॒वीरे॒ क्रतौ॒ वि द॑विद्युत॒न्नोरा॒ न मा॒युं चि॑तयन्त॒ धुन॑यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इषुः॑ । न । श्रि॒ये । इ॒षु॒ऽधेः । अ॒स॒ना । गो॒ऽसाः । श॒त॒ऽसाः । न । रंहिः॑ । अ॒वीरे॑ । क्रतौ॑ । वि । द॒वि॒द्यु॒त॒त् । न । उरा॑ । न । मा॒युम् । चि॒त॒य॒न्त॒ । धुन॑यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहि: । अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इषुः । न । श्रिये । इषुऽधेः । असना । गोऽसाः । शतऽसाः । न । रंहिः । अवीरे । क्रतौ । वि । दविद्युतत् । न । उरा । न । मायुम् । चितयन्त । धुनयः ॥ १०.९५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इषुधेः) इषु कोश से (असना) फेंकने-योग्य-फेंका जानेवाला (इषुः) बाण (श्रिये न) विजयलक्ष्मी गृहशोभा के लिए समर्थ नहीं होता है, तुझ भार्या तुझ प्रजा के सहयोग के बिना, (रंहिः-न) मैं वेगवान् बलवान् भी नहीं बिना तेरे सहयोग के (गोषाः-शतसाः) शत्रुभूमि का भोक्ता या बहुत धन का भोक्ता (अवीरे) तुझ वीर पत्नी से रहित या वीर प्रजा से रहित (उरा क्रतौ) विस्तृत यज्ञकर्म में या संग्रामकर्म में (न विदविद्युतत्) मेरा वेग प्रकाशित नहीं होता बिना तेरे सहयोग के (धुनयः) शत्रुओं को कंपानेवाले हमारे सैनिक (मायुम्) हमारे आदेश को (न चिन्तयन्त) नहीं मानते हैं बिना तेरे सहयोग के ॥३॥

    भावार्थ

    भार्या या राजा प्रजा के सहयोग के बिना तुणीर या बाणकोश से निकला हुआ बाण विजयलक्ष्मी प्राप्त कराने में समर्थ नहीं होता और बलवान् शत्रुभूमि को भोगनेवाला बहुत धन को भोगनेवाला नहीं बनता है बिना पत्नी और प्रजा के सहयोग के, यज्ञकर्म में और संग्रामकर्म में बिना पत्नी और प्रजा के शासन प्रकाशित नहीं होता है तथा शत्रुओं को कंपानेवाले सैनिक भी आदेश को नहीं मानते हैं पत्नी और प्रजा के सहयोग के बिना, इसलिए राजा को पत्नी और प्रजा का अनादर न करके सहयोगिनी बनाना चाहिए ॥३॥

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    विषय

    पत्नी के द्वारा प्रेम पूर्ण स्वागत का महत्त्व

    पदार्थ

    [१] उर्वशी ने यह तो कह दिया कि 'कार्य समाप्ति पर एकदम घर ही आना' । पर साथ ही यह जो संकेत किया कि कार्य संलग्न होने से बातचीत की उसे फुर्सत नहीं । सो पति घर पर आकर करे भी क्या ? दिनभर के कार्यभार से थका-मादा वह घर पर पहुँचे, वहाँ उसके साथ मधुर शब्दों में कोई बात भी न करे तो उसका जीवन स्वभावतः नीरस [dull and dreary] हो जाता है। वह कहता है कि इस स्थिति को प्राप्त एक क्षत्रिय नवयुवक के (इषुधेः) = तर्कस से (इषुः) = बाण (श्रिये) = शत्रुविजय रूप श्री की प्राप्ति के लिए (असना न) = [असु क्षेपणे] फेंकने के लिए नहीं होता । अर्थात् वह पत्नी के शीत स्वागत [cold reception] से उत्पन्न उस मानस विक्षोभ के कारण शत्रुओं पर बाणवर्षा नहीं कर पाता। [२] इसी प्रकार यदि वह वैश्य युवा होता है तो (रंहि:) = पहले अत्यन्त वेगवान् होता हुआ भी अब शैथिल्य के कारण (गोषाः) = गवादि धनों को प्राप्त करनेवाला अथवा (शतसा:) = सैकड़ों धनों को प्राप्त करनेवाला (न) = नहीं होता। उसे धन कमाने में उत्साह नहीं रहता । पत्नी का प्रेमपूर्ण व्यवहार ही उसके उत्साह को कायम रख सकता है। [३] यदि ऐसा युवक ब्राह्मण होता है तो कहता है कि (अ-वीरे) = [यज्ञाग्नि-वीर ] यज्ञाग्नि से रहित (क्रतौ) = यज्ञों में (न विदविद्युतन्) = यज्ञाग्रियाँ दीप्त नहीं होती। अर्थात् उसका 'यजनयाजन' का उत्साह मन्द पड़ जाता है। [४] इस प्रकार के शूद्र युवक भी (धुनयः) = आलस्य को कम्पित करके अपने से दूर करनेवाले होते हुए भी (उरा) = इस विस्तृत कार्यक्षेत्र में (मायुम्) = स्वामी से दी जाती हुई आज्ञा के शब्द को (न चितयन्त) = नहीं जान पाते। विक्षिप्त मनवाला होने के कारण उन्हें आवाज ही नहीं सुनाई पड़ती। सारे कार्य को वे अनमनेपन से ही करते हैं । [५] इस सबका भाव स्पष्ट है कि पत्नी को घर पर वापिस आये पति का पूर्ण प्रेम से स्वागत करना चाहिए। उनके कार्यों के विषय में बातचीत के द्वारा पूरी रुचि दिखानी चाहिए। कठिनताओं का हल सुझाते हुए उन्हें उत्साहित करना चाहिए। पति को यह अनुभव हो कि वह संसार में अकेला नहीं, कोई उसका साथी है। उसके सुख-दुःख में हिस्सा बटानेवाला उसका कोई अभिन्न मित्र भी है।

    भावार्थ

    भावार्थ–घर पर पत्नी से प्राप्त कराया गया प्रेमपूर्ण स्वागत पति के जीवन में उत्साह का संचार करता है। पति को इस स्वागत से अपना अकेलापन नहीं खलता ।

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    विषय

    सेनापति कैसा हो ?

    भावार्थ

    सेनापति कैसा हो ? (इषुधेः इषुः न) तरकस के तीर के समान सेनापति (श्रिये) शोभा, राज्यलक्ष्मी के लिये और (असना) शत्रु को उखाड़ने के लिये हो। वह (गो-साः) भूमि का भोक्ता वा दाता और (शतसाः न) सैकड़ों सुखों को देने वाला तथा (रंहिः) वेगवान् वथ के तुल्य पराक्रमी और बलवान् हो। (अवीरे क्रतौ) वीरों से रहित वा युद्धादि से रहित कार्य में (न दविद्युतत्) वह नहीं चमकता, वीरोचित युद्धादि कार्य में ही उसकी शोभा है। और (उरा न) महान् अन्तरिक्ष के तुल्य (उरा) विस्तृत रणाङ्गण में (धुनयः) शत्रुओं के कंपा देने वाले वीर सेनाजन भी (मायुं चितयन्त) वायुओं के समान गर्जनाओं को करें और सेनाएं भी सेनापति के शब्द को जानें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इषुधेः-असना-इषुः) हे जाये प्रजे वा सतां तव सहाय्येन विना-इषुकोशात् क्षेपणीया खल्विषुः (न श्रिये) न विजयलक्ष्म्यै समर्था भवन्ति (रंहिः-न) न अहं वेगवान् बलवानपि (गोषाः शतसाः) शत्रुभूमेर्भोक्ता बहुधनस्य भोक्ता (अवीरे-उरा क्रतौ) वीरभार्यया वीरप्रजयारहिते विस्तृते यज्ञकर्मणि सङ्ग्रामकर्मणि वा (न विदविद्युतत्) न हि मम वेगो विद्योतते (धुनयः) शत्रूणां कम्पयितारोऽस्माकं सैनिकाः (मायुम्) अस्माकं शब्दमादेशं (न-चिन्तयन्त) न मन्यन्ते ॥३।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I am not able to shoot the arrow from the quiver for victory and glory, and though I am strong and brave, I cannot win the hundreds of lands with the roar of victory. O lady bereft of the brave, I shine not in the rising battles of life, my own powerful forces forsake me.$(The dialogue develops as a dialogue between man in love with life and the search for inspiration, purpose and consummation of living. The love is intense, excessive and vociferous like the thundering cloud’s and the inspiration is lovely and seductive like the elusive lightning. It can be interpreted as a dialogue between the ambitious ruler and the social power, and ultimately, between the liver (man) and the possibilities of life, the passion and the unattainable, the dawn and the day, the night and the morrow.) Note that Pururava is Aila, child of Ila, nature, and Urvashi is infinite beauty, and their consummation is joy and creativity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    भार्या किंवा राजप्रजेच्या सहयोगाशिवाय बाणकोशातून निघालेला बाण विजयलक्ष्मी प्राप्त करण्यात समर्थ होत नाही. शत्रूभूमीला भोगणारा बलवान व अधिक धनाचा भोक्ता बनत नाही. पत्नी व प्रजेच्या सहयोगाशिवाय यज्ञकर्मात व युद्धकर्मात तेजस्विता प्रकट करू शकत नाही. पत्नी व प्रजेच्या सहयोगाशिवाय सैनिकही आदेश मानत नाहीत. त्यासाठी राजाने पत्नीचा व प्रजेचा अनादर न करता पत्नीला व प्रजेला सहयोगी बनविले पाहिजे. ॥३॥

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