ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 5
ऋषिः - उर्वशी
देवता - पुरुरवा ऐळः
छन्दः - भुरिगार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्रिः स्म॒ माह्न॑: श्नथयो वैत॒सेनो॒त स्म॒ मेऽव्य॑त्यै पृणासि । पुरू॑र॒वोऽनु॑ ते॒ केत॑मायं॒ राजा॑ मे वीर त॒न्व१॒॑स्तदा॑सीः ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिः । स्म॒ । मा । अह्नः॑ । श्न॒थ॒यः॒ । वै॒त॒सेन॑ । उ॒त । स्म॒ । मे॒ । अव्य॑त्यै । पृ॒णा॒सि॒ । पुरू॑रवः । अनु॑ । ते॒ । केत॑म् । आ॒य॒म् । राजा॑ । मे॒ । वी॒र॒ । त॒न्वः॑ । तत् । आ॒सीः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिः स्म माह्न: श्नथयो वैतसेनोत स्म मेऽव्यत्यै पृणासि । पुरूरवोऽनु ते केतमायं राजा मे वीर तन्व१स्तदासीः ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिः । स्म । मा । अह्नः । श्नथयः । वैतसेन । उत । स्म । मे । अव्यत्यै । पृणासि । पुरूरवः । अनु । ते । केतम् । आयम् । राजा । मे । वीर । तन्वः । तत् । आसीः ॥ १०.९५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(उत) अपि-हाँ (पुरूरवः) हे बहुत प्रशंसक पति या हे बहुशासक राजन् ! (मा) मुझ तेरी पत्नी या प्रजा को वह व्यभिचारी या दस्यु (अह्नः-त्रिः) दिन में तीन वार (वैतसेन) पुरुषेन्द्रिय से-गुप्तेन्द्रिय से (श्नथयः स्म) ताड़ित करे पीड़ित करे, यह सम्भावना है (अव्यत्यै मे) अविपरीता अनुकूला हुई मुझको (पृणासि) प्रसन्न कर तृप्त कर, ध्यान रख, कोई व्यभिचारी या दस्यु न आ घुसे (ते केतमनु) तेरे निर्देश के अनुसार (आयम्) मैं पत्नी या प्रजा तुझे प्राप्त हुई हूँ (तत्) इस हेतु (वीर) वीरपति या राजन् (मे तन्वः राजा-आसीः) तू मेरे आत्मा का आत्मीय-राजा है ॥५॥
भावार्थ
किसी भी घर में या राष्ट्र में व्यभिचारी या दस्यु को घुसने न दिया जावे, अन्यथा पत्नी को और प्रजा को बलात् सम्भोग से बारम्बार पीड़ित करेगा, अनुकूल पत्नी तथा प्रजा को सदा प्रसन्न तृप्त रखे, पति या राजा पत्नी या प्रजा का आत्मीय साथी है ॥५॥
विषय
उर्वशी का [प्रकाशम्] प्रकट उत्तर
पदार्थ
[१] हे (पुरुरवः) = खूब प्रभु का स्तवन करनेवाले पतिदेव ! क्या आप ही (अह्नः त्रिः) = दिन में कम से कम तीन बार (मा) = मुझे (वैतसेन) = वेत्रदण्ड से (श्नथयः स्म) = ताड़ित ही करते हो, (उत स्म) = या निश्चय से (अव्यत्यै मे) = [अवि अती, अत सातत्यगमने] कभी भी इधर-उधर न जानेवाली मेरे लिए घर पर रहकर ठीक से कार्यों में लगी रहनेवाली के लिए पृणासि कुछ मधुर शब्दों से सुख को देनेवाले भी होते हो । [२] उठते ही 'यह करो, यह लाओ' इन शब्दों से आफत - सी कर देना, ऑफिस आदि जाते समय भी 'ये चीज यहाँ क्यों पड़ी है ? क्या मुफ्त में आयी है ?' आदि शब्दों से झाड़ना, फिर वापिस आने पर 'झटपर करो न' आदि शब्दों से मुझे भी उतावली- सा कर देना, यही यहाँ 'तीन बार ताड़ना' शब्द से संकेतित हुआ है। पति को पत्नी के बोझ का ध्यान करते हुए उसके कार्यों की आलोचना न करना ही ठीक है । [३] उर्वशी कहती है कि हे पुरुरवः! मैं तो (ते केतं अनु) = आपके ज्ञान की बात को सुनने के बाद (आयम्) = आपकी संगिनी बनकर इस घर में आयी। वीर हे वीर पुरुषोचित कर्मों के करनेवाले पुरुरवः ! (तदा) = तब, जब कि मैंने आपके ज्ञान की चर्चा सुनी, तो (मे तन्वः) = मेरे शरीर के (राजा आसी:) = आप राजा हो गये थे। मैंने मन से अपने को आपके प्रति सौंप दिया था। मुझे आपके इस प्रकार क्रुद्ध हो जाने का ज्ञान न था। प्रभु स्तवन करनेवाला वीर पुरुष क्रोध कर भी कैसे सकता है ? [४] उर्वशी के इस प्रकार कहने का पुरुरवा पर सुन्दर प्रभाव पड़ता है और पुरुरवा कहते हैं-
भावार्थ
भावार्थ - उर्वशी पति से कहती है कि आप तो यूँही क्रोध करने लगते हो। मैं क्या इधर- उधर कभी व्यर्थ में जाती हूँ? काम में ही तो लगी रहती हूँ। मैंने जरा बात नहीं की तो क्या प्रलय आ गयी ? आप 'पुरुरव: ' हैं, 'वीर' हैं, सो क्यों क्रोध करना ?
विषय
सेना नायक का वर्णन।
भावार्थ
हे सेनानायक ! तू (मां) मुझको (अह्नः) न नाश होने वाले, सूर्य के समान तेजस्वी शासक के (वैतसेन) ज्ञानमय प्रकाश से (त्रिः श्नथयः) तीनों प्रकार से बन्धन से युक्त कर ! (उत) और (मे अव्यत्यै) मेरे अविरुद्ध, अनुकूल आचरण के लिये मुझें (पृणासि) पालन पोषण कर। हे (पुरूरवः) बहुतों को आज्ञा देने वाले शासक मैं (ते केतम् अनु आयम्) तेरे गृह, ज्ञान वा शरण को प्राप्त करूं। हे (वीरः) शूरवीर ! तू (मे तन्वः) मेरे विस्तृत राष्ट्र का स्त्री के शरीर का स्वामी के तुल्य (तत् राजा आसीः) तू वह परम शरण, राजा हो। इति प्रथमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(उत पुरूरवः) अपि हे बहुप्रशंसक पते बहुशासक प्रजापते राजन् ! (मा) मां तव जायां तव प्रजां वा स व्यभिचारी जारो दस्युर्वा (अह्नः-त्रिः) दिनस्य दिने त्रिः त्रिरिति बहुत्वप्रदर्शनार्थं बहुवारं (वैतसेन) पुंस्प्रजननेन “शेपो वैतस इति पुँस्प्रजननस्य-त्रिः स्म-माह्नः श्नथयो वैतसेन [निरु० ३।२१] (श्नथयः स्म) ताडयेत्-इति सम्भावना “श्नथति वधकर्मा” [निघ० २।१९] “श्नथयः” ‘पुरुषव्यत्ययेन मध्यमो लिङर्थे लङ्’ (अव्यत्यै मे) अविपरीतगतिकायै अनुकूलायै मह्यं (पृणासि) त्वं पृणीहि ‘लोडर्थे लट्’ (ते केतम्-अनु-आयम्) तव निर्देशमनुसरती खल्वहमागच्छम् (वीर) हे वीर ! पते ! प्रजापते ! वा (तत् मे तन्वः) तस्मात् पूर्वतः-विवाहकालादेव शासनकालादेव वा त्वं ममात्मनः “आत्मा वै तनूः” [श० ६।७।२।६] (असि) पतिर्भवसि ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Pururava, cloud, day, thrice in a unit of time you would move me with the energy of procreative nature and thus achieve the fulfilment of nature’s purpose. Come to your chamber thus for fulfilment, O brave one, you would be the ruler of my body. (But stay I cannot.) Mantras 4 and 5 are spoken by Urvashi like a thoughtful soliloquy.
मराठी (1)
भावार्थ
कोणत्याही घरात किंवा राष्ट्रात व्यभिचारी किंवा दस्यू यांना घुसू देता कामा नये; अन्यथा पत्नीला जबरदस्तीने संभोग व प्रजेला पीडा देऊन त्रास देईल. अनुकूल पत्नी व प्रजा यांना सदैव प्रसन्न व तृप्त ठेवावे. पती पत्नीचा व राजा प्रजेचा आत्मीय साथी आहे. ॥५॥
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