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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 4
    ऋषिः - उर्वशी देवता - पुरुरवा ऐळः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सा वसु॒ दध॑ती॒ श्वशु॑राय॒ वय॒ उषो॒ यदि॒ वष्ट्यन्ति॑गृहात् । अस्तं॑ ननक्षे॒ यस्मि॑ञ्चा॒कन्दिवा॒ नक्तं॑ श्नथि॒ता वै॑त॒सेन॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा । वसु॑ । दध॑ती । श्वशु॑राय । वयः॑ । उषः॑ । यदि॑ । वष्टि॑ । अन्ति॑ऽगृहात् । अस्त॑म् । न॒न॒क्षे॒ । यस्मि॑म् । चा॒कन् । दिवा॑ । नक्त॑म् । श्न॒थि॒ता । वै॒त॒सेन॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सा वसु दधती श्वशुराय वय उषो यदि वष्ट्यन्तिगृहात् । अस्तं ननक्षे यस्मिञ्चाकन्दिवा नक्तं श्नथिता वैतसेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सा । वसु । दधती । श्वशुराय । वयः । उषः । यदि । वष्टि । अन्तिऽगृहात् । अस्तम् । ननक्षे । यस्मिम् । चाकन् । दिवा । नक्तम् । श्नथिता । वैतसेन ॥ १०.९५.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यदि सा-उषः) यदि वह तेजस्विनी भार्या या प्रजा (श्वशुराय) कुत्ते के समान हिंसक व्यभिचारी या दस्यु के लिए (वसु) वास (वयः) अन्न (दधती) धारण करती है-देती है, (अन्ति गृहात्) घर के गुप्त स्थान या राष्ट्र के मध्य (वष्टि) उसे व्यभिचारभावना से चाहता है (अस्तं ननक्षे) घर को व्याप जाता है (यस्मिन्) जिस घर में या राष्ट्र में (दिवा नक्तम्) दिन रात (चाकन्) सम्भोग की इच्छा करता रहता है (वैतसेन) पुरुषेन्द्रिय के द्वारा (श्नथिता) हिंसित या ताड़ित होवे या होती है ॥४॥

    भावार्थ

    यौवनसम्पन्न स्त्री तथा प्रजा यदि व्यभिचारी जार या दस्यु को घर या राष्ट्र में वास या भोजन दे, तो वह जार व्यभिचारी दस्यु स्त्री या प्रजा को कामदृष्टि से देखता है और दिनरात कामवश अपनी गुप्तेन्द्रिय से स्त्री या प्रजा को हिंसित या ताड़ित करता है। अतः अज्ञात परपुरुष घर में स्त्री तथा दस्यु को-शत्रु को घर राष्ट्र में प्रजा वास और भोजन न दे ॥४॥

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    विषय

    उर्वशी का 'स्वागतम्' विचार

    पदार्थ

    [१] 'पुरुरवा' की गत मन्त्र की बात को सुनकर उर्वशी अपने मन में उषा को सम्बोधन करती हुई इस प्रकार से कहती है कि मुझे केवल पति का ही तो ध्यान नहीं करना, सास-ससुर के सुख को भी तो देखना है। वस्तुतः इन सास-ससुर के तो खान-पान का भी तो बहुत ध्यान करना पड़ता है। वे एक बार तो रजकर खा ही नहीं पाते, उन्हें तो थोड़ा-थोड़ा भोजन कई बार देना होता है और वह भी गरम। ठण्डे का तो उनके लिए चबाना व पचाना ही कठिन हो जाए । उर्वशी कहती है कि हे (उषः) = उषे! तेरे आते ही (सा) = वह मैं (श्वशुराय) = सास व ससुर के लिए [ श्वश्रूश्व श्वशुरश्व - श्वशुरौ ] (वसुवयः) = निवास के लिए जीवन धारण के लिए उत्तम अन्न को (दधती) = धारण करती हुई होती हूँ। उनके लिए मुझे भोजनादि की व्यवस्था करनी होती है। सो उनके कमरे में ही मेरा बहुत-सा समय बीत जाता है । [२] ऐसा होते हुए भी यदि अगर ये पतिदेव (वष्टि) = चाहते हैं तो मैं (अन्तिगृहात्) = उस समीप के कमरे से [antiehambes] (अस्तम्) = उनकी गृह कक्षा को (ननक्षे) = जाती हूँ, (यस्मिन् चाकन्) = जिसमें कि वे मुझे चाहते हैं । परन्तु होता तो यही है कि मैं (दिवानक्तम्) = दिन-रात (वैतसेन) = [cane, stiek] दण्ड से (श्नथिता) = ताड़ित होती रहती हूँ। कभी ये किसी बात से झाड़ देते हैं, कभी किसी बात से । संसार संघर्षजनित क्रोध को भी ये मेरे पर ही निकालने की करते हैं । इन्हें यह अच्छी तरह पता तो है कि मैं हर समय इनके पास नहीं बैठ सकती, इन वृद्धों की भी तो सेवा करनी ही है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उर्वशी अपने मन में सोचती है कि मुझे पति के पास बैठकर बात करने का अवकाश ही कहाँ है । मुझे अन्तिगृह में स्थित सास-ससुर का भी तो ध्यान करना है । ये तो व्यर्थ में ही दिन-रात खीझकर मेरे पीछे डण्डा लेकर पड़े रहते हैं ।

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    विषय

    उषा के तुल्य वधू के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (उषः) प्रभात वेला के समान कान्तिमती कन्या जिस प्रकार (वसु दधती) धनैश्वर्य को धारण करती हुई, (श्वशुराय वयः कामयते) अपने श्वशुर के दीर्घ जीवन वा अन्न की कामना करती है, और (अन्ति गृहात्) अपने पिता के घर से निकल कर (अस्तं ननक्षे) अपने पति के उस घर को प्राप्त होती है, (यस्मिन् दिवा नक्तं चाकन्) जिसके निमित्त वह दिन रात चाहती है, और दिन रात (वैतसेन श्नथिता) सुखानुभव से भरी पूरी रहती है। उसी प्रकार (उषः) शत्रु को संताप करने वाली सेना (यदि वयः वष्टि) जो बल, अन्न और जीवन चाहती है (सः) वह (श्वशुराय = स्वशूराय वसु दधती) अपने शूरवीर नायक के लिये ऐश्वर्य को धारण करती हुई (अन्तिगृहात्) समीप के मित्र-राज्य से, (अस्तं) शत्रु को उखाड़ने वाले बल को (ननक्षे) प्राप्त करे, (यस्मिन्) जिसके अधीन रहकर वह (दिवा नक्तं) दिन रात्रि (वैतसेन) बेंत की सी वृत्ति ‘अर्थात्’ प्रबल के आक्रमण को देख कर विनय से झुकने और दुर्बल को देख कर फिर सिर उठा लेने वाले नायक से (श्नथिता) वशीभूत होकर (चाकन्) नाना सुखों की कामना करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यदि सा-उषः) यदि सा तेजस्विनी राजभार्या प्रजा वा उषः “सुपां सुलुक्” [अष्टा० ७।१।३९] ‘इति सोर्लुक्’ (श्वशुराय वसु वयः-दधती) श्वा इव शूरो हिंसकः पीडकः सः श्वशुरो व्यभिचारी जारो-दस्युर्वा “शॄ हिंसायाम्” [क्र्यादि०] ‘ततो डुरच् प्रत्ययो बाहुलकादौणादिकः तस्मै वासमन्नं धारयन्ती (अन्ति गृहात्-वष्टि) गृहमध्ये कोणे राष्ट्रमध्ये वा तां कामयते (अस्तं ननक्षे) गृहं व्याप्नोति प्राप्नोति (यस्मिन्-दिवा नक्तं-चाकन्) यत्र दिने रात्रौ वा यन्निमित्तं वासमन्नं कामयते तस्य व्यभिचारिणो दस्योर्वा सा (वैतसेन श्नथिता) पुंस्प्रजननेन हिंसिता ताडिता भवेत् ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    If Urvashi (electric energy or the dawn) bearing light and nourishment for the coming day were to rise from the depth of space or darkness of night, and stricken with love as catalytic agent, were to visit the lover’s chamber, the heart of the cloud or the sun on the rise, then she would be struck with three way charge of positive, negative and consummative ‘vaitasa’, process of nature’s evolutionary activity. Day and night, all time? (‘Vaitasa’ is the name of a process of movement, attainment, fertility, enlightenment, extension, consumption and evolution in the natural cycle. The catalytic agent does not stay with the mode it causes to change and move toward growth. The electric charge causes the cloud thunder, breaks the cloud into rain, and that causes the earth to produce vegetation. The processes of catalysation, rain and growth are described in the Brahmanas and quoted by Swami Dayananda in his commentaries on Vedic mantras.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    यौवनसंपन्न स्त्रीने जर व्यभिचारी जाराला भोजन दिल्यास व घरात निवास करू दिल्यास तो व्यभिचारी जार स्त्रीला कामदृष्टीने पाहतो व दिवस-रात्र कामपीडित होऊन स्त्रीला त्रस्त करतो व प्रजेने दस्यूला राष्ट्रात निवास करू दिल्यास तो हिंसा करू लागतो. त्यासाठी स्त्रीने अज्ञात परपुरुषाला व प्रजेने दस्यूला घरात व राष्ट्रात निवास करू देता कामा नये. ॥४॥

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