ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 16
ऋषिः - उर्वशी
देवता - पुरुरवा ऐळः
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यद्विरू॒पाच॑रं॒ मर्त्ये॒ष्वव॑सं॒ रात्री॑: श॒रद॒श्चत॑स्रः । घृ॒तस्य॑ स्तो॒कं स॒कृदह्न॑ आश्नां॒ तादे॒वेदं ता॑तृपा॒णा च॑रामि ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । विऽरू॒पा । अच॑रम् । मर्त्ये॑षु । अव॑सम् । रात्रीः॑ । श॒रदः॑ । चत॑स्रः । घृ॒तस्य॑ । स्तो॒कम् । स॒कृत् । अह्नः॑ । आ॒श्ना॒म् । तात् । ए॒व । इ॒दम् । त॒तृ॒पा॒णा । च॒रा॒मि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्विरूपाचरं मर्त्येष्ववसं रात्री: शरदश्चतस्रः । घृतस्य स्तोकं सकृदह्न आश्नां तादेवेदं तातृपाणा चरामि ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । विऽरूपा । अचरम् । मर्त्येषु । अवसम् । रात्रीः । शरदः । चतस्रः । घृतस्य । स्तोकम् । सकृत् । अह्नः । आश्नाम् । तात् । एव । इदम् । ततृपाणा । चरामि ॥ १०.९५.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 16
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्) जिससे कि (विरूपा) पूर्व से विमुख अर्थात् पूर्व ब्रह्मचारिणी से विरूप गृहिणीभाव को प्राप्त को (अचरम्) सेवन करती हूँ (मर्त्येषु) पुरुषों में-पुरुषों के सम्पर्क में एक की पत्नी होकर (अवसम्) वसती हूँ-वसूँ (शरदः) शीतकालीन (चतस्रः-रात्रीः) चार रात्रियाँ, जिनमें तीन रजस्वलावाली फिर एक गर्भाधानवाली को वस रही हूँ-वसूँ (अह्नः) दिन के (सकृत्) एक बार ही (घृतस्य) मानव बीज-वीर्य के (स्तोकम्) अल्प भाग को (आश्नाम्) भोगती हूँ-भोगूँ (तात्-एव) उतने मात्र से ही (इदं तातृपाणा) इस समय तृप्त हुई (चरामि) विचरती हूँ-विचरूँ ॥१६॥
भावार्थ
कुमारी ब्रह्मचारिणीरूप को छोड़कर गृहिणी के रूप में आती हैं या आया करती हैं, पुरुषों के सम्पर्क में किसी एक की पत्नी बनकर रहती हैं-रहना होता है, पतिसङ्ग केवल शीतकाल चार रात्रियों का होता है, तीन रजोधर्म की पति के सङ्ग रहने की और चौथी गर्भाधान की, केवल एक बार मानव बीज-वीर्य का अल्प भाग सन्तानार्थ लेकर सन्तान की उत्पत्ति तक तृप्त रहना चाहिये-संयम से रहना चाहिये ॥१६॥
विषय
भोजनाच्छादन की कमी
पदार्थ
[१] मूलभूत बात को कहने के बाद उर्वशी अन्य बातों को भी कह डालती है । (यद् यद्यपि मर्त्येषु) = मनुष्यों के एकत्रित होने के स्थलों में [उत्सवों में] मैं कपड़ों के ठीक न होने से (विरूपा) = हीनरूपवाली होती हुई, भद्दी प्रतीत होती हुई (अचरम्) = विचरती रही, तो भी मैं (चतस्रः शरदः रात्रीः अवसम्) = पूरे चार वर्षों के दिनों वहाँ पतिगृह में रहती रही। [२] (घृतस्य स्तोकम्) = घी का थोड़ा सा अंश और वह भी (अह्नः सकृत्) = दिन में एक बार (आश्नाम्) = मैं खाती रही। (तात् एव) = [तेन एव] उतने से ही (तातृपाणा) = तृप्त-सी हुई हुई (इदं चरामि) = मैं इस घर में विचरती रही इन सब बातों को तो मैंने सहा । परन्तु बदनामी को सहना कठिन हुआ, सो यहाँ चली आई।
भावार्थ
भावार्थ-पति को पत्नी के लिए भोजनाच्छादन की समुचित व्यवस्था का तो व्रतरूप में पालन करना चाहिए।
विषय
सेना का नायक के प्रति अपना कर्त्तव्य वर्णन।
भावार्थ
(या) जो मैं सेना (वि-रूपा) विविध रूप वाली, नाना व्यूहों से नाना प्रकार की (अचरम्) गति करती हूं, (मर्त्येषु) शत्रुओं को मारने वाले वीरों में (चतस्रः) चार (रात्रीः शरदः) शरद् के चारों मासों के सब दिनों (अवसम्) बसती हूँ। और (अहनः) अहिंसनीय, अपराजित (घृतस्य) तेजस्वी वीर नायक के (सकृत्) एक साथ उद्योग करने वाले (स्तोकं) शत्रुहिंसक बल का (आश्नाम्) भोग करती हूँ, (तात् एव) उसीसे (इदम्) इस प्रकार मैं (तातृपाणा) शत्रु की निरन्तर हिंसा करती हुई (चरामि) विचरती हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्-विरूपा-अचरम्) यतोऽहं पूर्वतो-ब्रह्मचारिणी खल्वासं तद्विरुद्धा गृहिणी त्वं चरितवती चरामि (मर्त्येषु-अवसम्) पुरुषेषु पुरुषाणां सम्पर्के-एकस्य भार्या भूत्वा वसामि (शरदः-चतस्रः-रात्रीः) शीतकालिकाः खलु चतस्रो रात्रीः-तिष्ठन्तु-रजस्वलास्थाभूताः पुनरेका गर्भाधानविषयिकाः वासं कृतवती वसामि (अह्नः सकृत्) दिनस्यैकवारमेव (घृतस्य स्तोकम्-आश्नाम्) रेतसो मानव-बीजस्य-वीर्यस्य “रेतो वै घृतम्” [श० ९।३।३।४४] अल्पं भागं भुक्तवती भुञ्जे (तात्-एव-इदं तातृपाणा चरामि) तेनैवेदानीं तृप्यमाणा चरामि ॥१६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When I came down from the divine into this different earthly form living happily for four years among mortals, I have lived on one time little drop of ghrta a day, and content with that alone I sojourn among men.
मराठी (1)
भावार्थ
स्त्री कुमारी ब्रह्मचारिणीचे रूप सोडून गृहिणीच्या रूपात येते. पुरुषांच्या संपर्कात एखाद्याची पत्नी बनून राहते. पतीचा सहवास केवळ शीतकाळात चार रात्रींचा असतो. तीन रजोधर्माच्या व चौथी गर्भाधानाची. केवळ एकदा मानव बीज वीर्याचा अल्प भाग संतान उत्पत्तीसाठी योग्य आहे. त्यातच तृप्त असावे. संयमाने राहावे. ॥१६॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal