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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 95/ मन्त्र 14
    ऋषिः - पुरूरवा ऐळः देवता - उर्वशी छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सु॒दे॒वो अ॒द्य प्र॒पते॒दना॑वृत्परा॒वतं॑ पर॒मां गन्त॒वा उ॑ । अधा॒ शयी॑त॒ निॠ॑तेरु॒पस्थेऽधै॑नं॒ वृका॑ रभ॒सासो॑ अ॒द्युः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽदे॒वः । अ॒द्य । प्र॒ऽपते॑त् । अना॑वृत् । प॒रा॒ऽवत॑म् । प॒र॒माम् । गन्त॒वै । ऊँ॒ इति॑ । अध॑ । शयी॑त । निःऽऋ॑तेः । उ॒पऽस्थे । अध॑ । ए॒न॒म् । वृकाः॑ । र॒भ॒सासः॑ । अ॒द्युः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुदेवो अद्य प्रपतेदनावृत्परावतं परमां गन्तवा उ । अधा शयीत निॠतेरुपस्थेऽधैनं वृका रभसासो अद्युः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽदेवः । अद्य । प्रऽपतेत् । अनावृत् । पराऽवतम् । परमाम् । गन्तवै । ऊँ इति । अध । शयीत । निःऽऋतेः । उपऽस्थे । अध । एनम् । वृकाः । रभसासः । अद्युः ॥ १०.९५.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 95; मन्त्र » 14
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सुदेवः) हे उर्वशी ! पत्नी ! तेरे विना सुख से खेलनेवाला बहुप्रशंसक पति (अद्य) आज-सम्प्रति (अनावृत्) अनाश्रित हुआ (प्रपतेत्) गिर पड़े-मूर्च्छा को प्राप्त हो जावे (परावतम्) दूर देश में (परमाम्) दूर दिशा को (गन्तवै-उ) जाने को उद्यत होवे (अध) अनन्तर-फिर (निर्ऋतेः) पृथिवी के (उपस्थे) उपस्थान-कोने या खड्डे में (शयीत) शयन करे-निष्क्रिय हो जावे-मर जावे (अध) अनन्तर-पुनः (एनम्) इसको (रभसासः) महान् (वृकाः) भेड़िये आदि मांसभक्षक पशु (अद्युः) खा डालें ॥१३॥

    भावार्थ

    अन्यथा मोह करनेवाले निराश्रित होकर किसी भी देश या दिशा में भूमि के गहन स्थान में आत्महत्या कर जाते हैं अथवा निराश होकर ऐसे निष्क्रिय हो जाते हैं कि उन जीते हुओं को भी मांसभक्षक खा जाते हैं, इसलिए अन्यथा मोह करना उचित नहीं है। शास्त्रविधि से धर्मानुसार पति-पत्नी सम्बन्ध होना चाहिए ॥१४॥

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    विषय

    पुरुरवा की शपथें [ नारी का समादर ]

    पदार्थ

    [१] उर्वशी की गत मन्त्रोक्त अन्तिम बात को सुनकर पुरुरवा शपथ खाकर अपनी निर्दोषता को प्रमाणित करता है। उसका अभिप्राय यह है कि व्यर्थ में कुछ भ्रान्ति [ गलतफहमी ] हो गई है। वास्तव में कोई ऐसी बात ही नहीं। वह कहता है कि यदि मैंने तुम्हारी बातों पर जानबूझकर ध्यान न दिया हो तो (अद्य) = आज (सुदेवः) = तुम्हारे साथ उत्तम क्रीड़ा करनेवाला भी (अनावृत्) = आवरण से रहित हुआ हुआ, सिर छुपाने के स्थानभूत गृह से रहित हुआ हुआ (प्रपतेत्) = भटकनेवाला है। मेरे भाग्य में भटकना ही भटकना लिखा हो । [२] (उ) = और (परमां परावतं गन्तवा) = [दूरादपि दूरदेशं गन्तुं - महाप्रस्थानयात्रां कर्तुं ] वह व्यक्ति दूर से दूर देश में जानेवाला हो अर्थात् महाप्रस्थान यात्रा को करनेवाला बने । [३] (अधा) = अब यह व्यक्ति (निरृतेः उपस्थे) = दुर्गति की गोद में (शयीत) = सोनेवाला हो । अधिक से अधिक दुर्गति को प्राप्त हो । [४] (अध) = और (एनम्) = इसे (रभसास:) = बड़े जबर्दस्त, खूँखार (वृका:) = भेड़िये (अद्युः) = खा जाएँ । जानबूझकर तुम्हारा यदि मैंने अपमान किया हो तो मुझे भूखे भेड़िये अपना भोजन बना डालें। इस प्रकार शपथपूर्वक अपनी निर्दोषता को कहता हुआ पुरुरवा उर्वशी को अनुनीत करना चाहता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- पत्नी का तिरस्कार करनेवाला [क] भटकता है, [ख] मृत्यु को प्राप्त होता है, [ग] दुर्गति को भोगता है, [घ] भूखे भेड़ियों का भोजन बनता है ।

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    विषय

    सेनापति को प्रमाद न करने का आदेश।

    भावार्थ

    यदि (सु-देवः) उत्तम विजिगीषु भी (अनावृत्) अरक्षित होकर (परावतं परमां गन्तवै अध प्रपतेत्) दूर से दूर के परदेश को प्रयाण करने के लिये प्रस्थान करे (अध) और (निर्ऋतेः उपस्थे) शत्रुसेना के समीप असावधान होकर (शयीत) सोये, प्रमाद करे तब (रभसासः) बलवान् (वृकासः) भेड़ियों के तुल्य चोर डाकू आदि शत्रुजन (एनं अद्युः) उसको खा जाते हैं, उसे नष्ट कर देते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ३, ६, ८—१०, १२, १४, १७ पुरूरवा ऐळः। २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ उर्वशी॥ देवता—१,३,६,८-१०,१२,१४,१७ उर्वशी; २, ४, ५, ७, ११, १३, १५, १६, १८ पुरुरवा ऐळः॥ छन्दः—१,२,१२ त्रिष्टुप्; ३,४,१३,१६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५,१० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ६–८, १५ विराट् त्रिष्टुप्। ९, ११, १४, १७, १८ निचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सुदेवः) हे उर्वशि ! भार्ये ! त्वया विना सुखेन क्रीडिता पुरूरवाः बहुप्रशंसकः पतिः (अनावृत्-अद्य-प्रपतेत्) अनाश्रितः सन्-अस्मिन् काले प्रपतेत्-मूर्च्छां गच्छेत् (परावतं परमां-गन्तवै-उ) दूरदेशं परमां दिशं गन्तुमेवोद्यतो भवेत् (अध निर्ऋतिः-उपस्थे शयीत) अनन्तरं पृथिव्याः “निर्ऋतिः पृथिवीनाम” [निघ० १।१] उपस्थाने क्वचित् खलु शयानः निष्क्रियः स्यात् (अध) अनन्तरम् (एनं रभसासः-वृकाः-अद्युः) एतं महान्तो भयङ्करा-वृकाः-मांसभक्षकाः पशवः-भक्षयेयुः ॥१४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Urvashi, if such a calamity befall, let the ardent lover immediately fall to no redemption, go far to the farthest distance, let him lie in the depth of denial and adversity, and let voracious wolves devour him.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अन्य स्त्रीच्या मोहात पडणारे लोक निराश्रित बनून कोणत्याही स्थानी किंवा दिशेत भटकतात, आत्महत्या करतात किंवा निराश होऊन असे निष्क्रिय होतात, की त्यांना मांसभक्षक खातात. त्यासाठी असा अयोग्य मोह ठीक नसतो. शास्त्रविधीने धर्मानुसार पती पत्नी संबंधच असला पाहिजे. ॥१४॥

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