ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 97/ मन्त्र 11
ऋषिः - भिषगाथर्वणः
देवता - औषधीस्तुतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यदि॒मा वा॒जय॑न्न॒हमोष॑धी॒र्हस्त॑ आद॒धे । आ॒त्मा यक्ष्म॑स्य नश्यति पु॒रा जी॑व॒गृभो॑ यथा ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । इ॒माः । वा॒जय॑न् । अ॒हम् । ओष॑धीः । हस्ते॑ । आ॒ऽद॒धे । आ॒त्मा । यक्ष्म॑स्य । न॒श्य॒ति॒ । पु॒रा । जी॒व॒ऽगृभः॑ । य॒था॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिमा वाजयन्नहमोषधीर्हस्त आदधे । आत्मा यक्ष्मस्य नश्यति पुरा जीवगृभो यथा ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । इमाः । वाजयन् । अहम् । ओषधीः । हस्ते । आऽदधे । आत्मा । यक्ष्मस्य । नश्यति । पुरा । जीवऽगृभः । यथा ॥ १०.९७.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 97; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्) जब (अहम्) मैं (वाजयन्) रोगी के लिये स्वास्थ्यबल को देता हुआ-देने के हेतु (इमाः) इन (ओषधीः) ओषधियों को (हस्ते) हाथ में (आदधे) चिकित्सा के लिए लेता हूँ-ग्रहण करता हूँ, तो (यक्ष्मस्य) रोग का (आत्मा) आत्मा-स्वरूप या मूल्य (पुरा) पूर्व ही (नश्यति) नष्ट हो जाता है (जीवगृभः-यथा) जीवों के ग्रहण करनेवाले पकड़नेवाले के पास से जीव जैसे भाग जाते हैं ॥११॥
भावार्थ
वैद्य चिकित्सा करने में ऐसे कुशल हों तथा प्रसिद्ध हों कि जैसे ही ओषधियों को चिकित्सा के लिए प्रयोग करें, रोगी को यह अनुभव हो कि ओषधी सेवन से पहले ही मेरा रोग भाग रहा है तथा वैद्य भी ओषधी देने के साथ-साथ उसे आश्वासन दे कि तेरा रोग तो अब जा रहा है ॥११॥
विषय
यक्ष्म की आत्मा का नाश
पदार्थ
[१] (यद्) = जो (वाजयन्) = [रुग्णं बलिनं कुर्वन् सा० ] रोगी के अन्दर शक्ति का संचार करता हुआ मैं (इमा:) = इन (ओषधी:) = ओषधियों को (हस्ते) = हाथ में (आदधे) = धारण करता हूँ, तो (यक्ष्मस्य) = रोग का (आत्मा) = आत्मा (नश्यति) = नष्ट हो जाता है। उसी प्रकार नष्ट हो जाता है (यथा) = जैसे (जीवगृभ:) = [जीवानां ग्राहकात्] व्याध के (पुरा) = सामने जीव नष्ट हो जाता है। [२] वस्तुतः ज्ञानी वैद्य ओषधि को हाथ में लेता है, त्यूँ ही रोगी का आधा रोग भाग जाता है, रोग की आत्मा चली जाती है, रोग मर - सा जाता है। [३] रोगी को ठीक करने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी शक्ति को कायम रखा जाए। शक्ति गयी, तो ठीक होने का प्रश्न ही नहीं रहता ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञानी वैद्य के हाथ में ओषधि लेते ही रोग मृत-सा हो जाता है । यह वैद्य रोगी के अन्दर वाज [बल] का संचार करके उसे जीवित कर देता है।
विषय
ओषधियों के प्राप्त करने से रोगों का शिकारी से भयभीत पक्षियों के समान भागना।
भावार्थ
(यत्) जब (अहम्) मैं (वाजयन्) बल प्राप्त करता हुआ (इमाः ओषधीः) इन ओषधियों को (हस्ते आ-दधे) हाथ में लेता हूं। तब (यथा जीव-गृभः) जिस प्रकार जीवों को पकड़ने वाले प्राणघाती से भयभीत होकर प्राणी, पक्षी आदि भागते हैं उसी प्रकार (यक्ष्मस्य) रोग का (आत्मा) व्यापक अंश भी (पुरा) पूर्ववत् (नश्यति) लुप्त हो जाता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—२३ भिषगाथर्वणः। देवता—ओषधीस्तुतिः॥ छन्दः –१, २, ४—७, ११, १७ अनुष्टुप्। ३, ९, १२, २२, २३ निचृदनुष्टुप् ॥ ८, १०, १३—१६, १८—२१ विराडनुष्टुप्॥ त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्-अहं वाजयन्) यदाऽहं रोगिणे बलं स्वास्थ्यबलं प्रयच्छन् (इमाः-ओषधीः-हस्ते-आदधे) एना ओषधीः स्वहस्ते गृह्णामि (तदा यक्ष्मस्य-आत्मा पुरा नश्यति) रोगस्य स्वरूपं मूलं पूर्वमेव नष्टं भवति (जीवगृभः-यथा) जीवानां ग्रहीतुः सकाशाद् जीवाः पलायन्ते तथा ॥११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When I take up these medicines in hand to administer them against ailments, it is like a warning of death for them and their very soul and root disappears, totally destroyed, even before the dose.
मराठी (1)
भावार्थ
वैद्य चिकित्सा करण्यात असे कुशल व प्रसिद्ध असावेत, की औषधींचा प्रयोग करताना रोग्याला असे वाटावे, की औषधी सेवन करण्यापूर्वीच माझा रोग दूर होत आहे व वैद्याने औषधाबरोबर आश्वासनही द्यावे, की तुझा रोग तर आता दूर होत आहे. ॥११॥
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