ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 97/ मन्त्र 13
ऋषिः - भिषगाथर्वणः
देवता - औषधीस्तुतिः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
सा॒कं य॑क्ष्म॒ प्र प॑त॒ चाषे॑ण किकिदी॒विना॑ । सा॒कं वात॑स्य॒ ध्राज्या॑ सा॒कं न॑श्य नि॒हाक॑या ॥
स्वर सहित पद पाठसा॒कम् । य॒क्ष्म॒ । प्र । प॒त॒ । चाषे॑ण । कि॒कि॒दी॒विना॑ । सा॒कम् । वात॑स्य । ध्राज्या॑ । सा॒कम् । न॒श्य॒ । नि॒ऽहाक॑या ॥
स्वर रहित मन्त्र
साकं यक्ष्म प्र पत चाषेण किकिदीविना । साकं वातस्य ध्राज्या साकं नश्य निहाकया ॥
स्वर रहित पद पाठसाकम् । यक्ष्म । प्र । पत । चाषेण । किकिदीविना । साकम् । वातस्य । ध्राज्या । साकम् । नश्य । निऽहाकया ॥ १०.९७.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 97; मन्त्र » 13
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यक्ष्म) राजरोग ! (चाषेण साकम्) ओषधियों के भक्षण के साथ-वमनरीति से (प्र पत) शरीर से बाहर गिर-निकल (किकिदीविना) क्या-क्या ऐसे कड़वे स्वादरूप कुरले से बाहर निकल (वातस्य ध्राज्या साकम्) अपानवायु के वेग के साथ (नश्य) नष्ट हो (निहाकया साकम्) खङ्खङ्कार थूकने क्रिया के साथ नष्ट हो ॥१३॥
भावार्थ
राजयक्ष्मा रोग को नष्ट करने के लिये वमन लानेवाली ओषधि खिलाकर या कड़वी ओषधि खिला-पिलाकर कुरले कराकर या अपानवायु लाकर या खङ्खङ्कार थूकने-लानेवाली ओषधि खिलाकर दूर करना चाहिये ॥१३॥
विषय
त्रिविध-दोष-विनाश
पदार्थ
[१] शरीर में रोग 'वात, पित्त व कफ' के विकार के कारण होते हैं। वातिक विकार से उत्पन्न रोगों का निर्देश प्रस्तुत मन्त्र में 'वातस्य ध्राज्या' इन शब्दों से हो रहा है । लेष्यजन्य रोगों का संकेत 'किकिदीविना' शब्द से हुआ है। श्लेष्मावरुद्ध कण्ठजन्य ध्वनि का अनुकरण 'किकि' शब्द है, उस ध्वनि के साथ दीप्त होनेवाला यह श्लेष्यजन्य रोग है । 'चण भक्षणे' से बना हुआ 'चाण' शब्द भस्मक आदि पैत्रिक रोगों का वाचक है। इन रोगों में अति पीड़ा के होने पर मनुष्य 'हा मरा' इस प्रकार चीख पड़ता है। उस पीड़ा का वाचक 'निहाका' शब्द है। [२] हे (यक्ष्म) = रोग ! तू (चाषेण) = पित्त विकार से होनेवाले राक्षसी भूखवाले भस्मकादि रोगों के (साकम्) = साथ (प्रपत) = इस शरीर से दूर हो जा । (किकिदीविना) = कफजन्य रोग के साथ तू यहाँ से नष्ट हो जा । (वातस्य ध्राज्या) = वात की गति व व्याप्ति जनित रोगों के (साकम्) = साथ तू इस शरीर से दूर हो। तथा (निहाकया) = प्रबल पीड़ा के (साकम्) = साथ नश्य तू इस शरीर से अदृष्ट हो जा।
भावार्थ
भावार्थ - औषध प्रयोग से पित्त, कफ व वात जनित सब विकार दूर हों। रोगजनित प्रबल पीड़ा भी दूर हो।
विषय
रोग का अपने तीव्र लक्षणों सहित नाश होना।
भावार्थ
हे (यक्ष्म) पीड़ादायी रोग ! (त्वं) तू (चाषेण साकं नश्य) अति भक्षण, या भूख के साथ दूर हो। और (किकिदीविना साकं नश्य) कि, कि, आदि विशेष वेदना सूचक ध्वनि करने वाले रोग के साथ नष्ट हो। (वातस्य ध्राज्या साकं नश्य) वात की गति के साथ नष्ट हो और (निहाकया साकं नश्य) ‘हा, मरा’ इत्यादि कष्ट ध्वनिकारक पीड़ा के साथ तू नष्ट हो। पित्तोद्रेक में राक्षसी भूख के साथ होने वाले शोष रोग वा जो रोग खाने की तीव्र इच्छा को उत्पन्न करे और अधिक खाने से ही वह बढ़ जाय उस लक्षण के साथ २ ही वह रोग नष्ट हो। कि, कि, आदि ध्वनि कास, हिचकी आदि कफ़ जन्य रोग ‘किकिदीवि’ हैं जिनमें मनुष्य कराहता है उन लक्षणों सहित रोग भी नष्ट हो, वात की गति से सन्धि-वेदनाएं उत्पन्न होती हैं, वे वात की गति के साथ २ शान्त हों, सन्निपातिक रोग में हा मरा, उंह २ आदि जो तीव्र वेदना प्रकट करने वाली ‘निहाका’ है उसके सहित रोग भी नष्ट हो।
टिप्पणी
‘चाषः’—चष भक्षणे भ्वादिः॥ किकिदीवी—किकिना ध्वनिविशेषेण दीव्यति व्यवहरति इति किकिदीवी यया पीड़या निहतोस्मि हा कष्टम् इति जायते सा पीड़ा ‘निहाका’। इति सायणः। तै० सं० भाष्ये ‘श्येनेन’ इति पाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—२३ भिषगाथर्वणः। देवता—ओषधीस्तुतिः॥ छन्दः –१, २, ४—७, ११, १७ अनुष्टुप्। ३, ९, १२, २२, २३ निचृदनुष्टुप् ॥ ८, १०, १३—१६, १८—२१ विराडनुष्टुप्॥ त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यक्ष्म) हे राजरोग ! त्वम् (चाषेण साकं प्र पत) ओषधीनां भक्षणेन सहैव “चष भक्षणे” [भ्वादि०] शरीराद् बहिः प्रपतनं कुरु वमनरीत्या (किकिदीविना) किं किमिति कटुकगण्डूषेण सह प्रपतनं कुरु (वातस्य ध्राज्या साकं नश्य) अपानवायोर्वेगेन सह नष्टो भव (निहाकया साकम्) नितरां खङ्खङ्कारष्ठीवनक्रियया सह नष्टो भव ॥१३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Consumptive disease is cured with increase in appetite, administration of medicine by mouth and cleansing by vomiting, with bitter medication, with strong and deep breathing in clean air, and cleansing of the system by eliminating the sputum and congestion.
मराठी (1)
भावार्थ
राजयक्ष्मा रोग नष्ट करण्यासाठी वमन करविणारी ओषधी देऊन कडू औषधी पाजून चूळ भरवून किंवा अपानवायूद्वारे अथवा खाकरून, थुंकून औषधी देऊन रोग दूर केले पाहिजेत. ॥१३॥
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