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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 97/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भिषगाथर्वणः देवता - औषधीस्तुतिः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒श्व॒त्थे वो॑ नि॒षद॑नं प॒र्णे वो॑ वस॒तिष्कृ॒ता । गो॒भाज॒ इत्किला॑सथ॒ यत्स॒नव॑थ॒ पूरु॑षम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्व॒त्थे । वः॒ । नि॒ऽसद॑नम् । प॒र्णे । वः॒ । व॒स॒तिः । कृ॒ता । गो॒ऽभाजः॑ । इत् । किल॑ । अ॒स॒थ॒ । यत् । स॒नव॑थ । पुरु॑षम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता । गोभाज इत्किलासथ यत्सनवथ पूरुषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वत्थे । वः । निऽसदनम् । पर्णे । वः । वसतिः । कृता । गोऽभाजः । इत् । किल । असथ । यत् । सनवथ । पुरुषम् ॥ १०.९७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 97; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वः) ओषधियों ! तुम्हारा (निषदनम्) तुम्हारा-नियोजन-उपयोग का स्थान (अश्वत्थे) देह के अन्दर है (वः) तुम्हारे (वसतिः) वासना (पर्णे) पर्णवत्-पत्ते के समान चञ्चल मन में (कृता) नियत की है (गोभाजः) तुम वैद्य की वाणी को भजनेवाली-वैद्य के अनुसार लाभ पहुँचानेवाली रोगी को अच्छा करनेवाली (इत्) अवश्य (किल-असथ) निस्सन्देह हो (यत्) जिससे कि (पुरुषम्) रोगी पुरुष को (सनवथ) सम्यक् सेवन करती हो-स्वस्थ करती हो ॥५॥

    भावार्थ

    वैद्य के कथनानुसार औषधियाँ रोगों को दूर करनेवाली सिद्ध होनी चाहिये, उनका देह में जिस स्थान पर रोग हो, प्रयोग किया जावे, जब स्वस्थ हो जावे तो उनका प्रभाव मन में बस जावे ॥५॥

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    विषय

    वानस्पतिक भोजन + गोदुग्ध

    पदार्थ

    [१] हे ओषधियो ! (वः) = आपका (अश्वत्थे) = [ न श्वः तिष्ठति] इस अस्थिर शरीर में निवास होता है, अर्थात् इस शरीर के निमित्त ही वस्तुतः आपका निर्माण हुआ है । (वः) = आपका यह (वसतिः) = शरीर में निवास (पूर्णे) = पालन व पूरण के निमित्त (कृता) = किया गया है। मुख्य रूप से इस शरीर को नीरोग रखने के लिए ही इनका प्रयोग होता है । [२] (यत्) = जब (किल) = निश्चय से (गोभाजः इत्) = गोदुग्ध का सेवन करनेवाली ही (असथ) = होती हो तो (पूरुषम्) = इस ब्रह्माण्ड पुरी में निवास करनेवाले प्रभु का (सनवथ) = सम्भजन करनेवाली होती हो। यदि एक व्यक्ति इन ओषधि वनस्पतियों के साथ गोदुग्ध का सेवन करनेवाला होता है, तो उसकी चित्तवृत्ति शान्त बनकर प्रभु की ओर झुकाववाली होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ओषधि वनस्पतियों व गोदुग्ध का ही सेवन करनेवाले बनें ।

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    विषय

    ओषधियों का आश्रय और जीवन का वैज्ञानिक रहस्य। सूर्यरश्मि आदि द्वारा प्रकाश वा रसादि को ग्रहण करने से ही उनमें रोगनाशक सामर्थ्य है। पक्षान्तर में—सेना के बल का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ओषधियो ! (वः नि-सदनम्) तुम्हारा आश्रय (अश्वत्थे) आशुगामी वायु पर स्थित मेघ पर है। (वः वसतिः) तुम्हारा निवास वा आच्छादन (पर्णे) पत्र समूह पर (कृता) बना है। तुम (गोभाजः इत् किल असथ) भूमि, सूर्य और रश्मियों का सेवन करने वाली हो, (यत्) जिससे तुम (पुरुषम् सनवथ) पुरुष के देह का सेवन करती हो, देह का पोषण करती, उसको बल देती हो। (२) सेनाएं अर्थात् अश्व जल राष्ट्र-बल पर स्थित, राजा पर आश्रित और (पर्णे) पालक स्वामी पर आश्रित होती हैं। वे (गो-भाजः) स्वामी की आज्ञा पालन करती और नायक पुरुष की सेवा करती हैं। इत्यष्टमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—२३ भिषगाथर्वणः। देवता—ओषधीस्तुतिः॥ छन्दः –१, २, ४—७, ११, १७ अनुष्टुप्। ३, ९, १२, २२, २३ निचृदनुष्टुप् ॥ ८, १०, १३—१६, १८—२१ विराडनुष्टुप्॥ त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वः) हे ओषधयः ! युष्माकं (निषदनम्-अश्वत्थे) नियोजनं देहे “अश्वत्थे श्वः”-न स्थाता-इद्देशे-देहे [यजु० १२।७९ दयानन्दः] (वः-वसतिः पर्णे कृता) युष्माकं वसतिर्वासना प्रभावस्थितिः पर्णवच्चञ्चले मनसिकृता भिषजा-वैद्येन (गोभाजः-इत् किल-असथ) यूयं गां वाचं भिषजो वाचं यथा भिषक् कथयति यदस्य रोगस्यैषा खल्वोषधिस्तथा तद्वाचं भजन्ते, तथाभूता हि खलु यूयं भवथ (यत्) यतो हि (पुरुषं-सनवथ) यूयं रोगिणं पुरुषं सम्भजथ स्वस्थं कुरुथ ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Your seat is on the ashvattha tree, on the air and the cloud, your residence is made on the leaf and on the parna tree, you share your efficacy with the earth, sun rays and the cow by which you bestow health and vitality for life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वैद्याच्या कथनानुसार औषधी रोग दूर करणारी सिद्ध झाली पाहिजे. देहात जिथे रोग असेल तेथे तिचा प्रयोग केला जावा. जेव्हा रोगी स्वस्थ होईल तेव्हा त्याचा प्रभाव मनावर पडला पाहिजे. ॥५॥

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