ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 97/ मन्त्र 8
ऋषिः - भिषगाथर्वणः
देवता - औषधीस्तुतिः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
उच्छुष्मा॒ ओष॑धीनां॒ गावो॑ गो॒ष्ठादि॑वेरते । धनं॑ सनि॒ष्यन्ती॑नामा॒त्मानं॒ तव॑ पूरुष ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । शुष्माः॑ । ओष॑धीनाम् । गावः॑ । गो॒ष्ठात्ऽइ॑व । ई॒र॒ते॒ । धन॑म् । स॒नि॒ष्यन्ती॑नाम् । आ॒त्मान॑म् । तव॑ । पु॒रु॒ष॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उच्छुष्मा ओषधीनां गावो गोष्ठादिवेरते । धनं सनिष्यन्तीनामात्मानं तव पूरुष ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । शुष्माः । ओषधीनाम् । गावः । गोष्ठात्ऽइव । ईरते । धनम् । सनिष्यन्तीनाम् । आत्मानम् । तव । पुरुष ॥ १०.९७.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 97; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सनिष्यन्तीनाम्) सम्भजनीय सेवन करने योग्य (ओषधीनाम्) ओषधियों के (शुष्माः) बलवान्-बलप्रदरस (गोष्ठात्-इव) गोस्थान से जैसे (गावः) गौवें (उत् ईरते) उछलती हुई निकलती हैं, वैसे (पुरुष) हे रोगी जन ! (तव) तेरे (आत्मानम्) आत्मा के प्रति (धनम्) तृप्त करनेवाला रस उछलता है ॥८॥
भावार्थ
समस्त सेवन करने योग्य ओषधियों के प्रत्यग्र बलवान् रस रोगी को देने चाहिएँ, उससे रोगी के शिथिल रक्त आदि धातु बढ़कर उसके आत्मा मन शरीर को तृप्त व तेजस्वी बना देते हैं ॥८॥
विषय
अध्यात्म सम्पत्ति
पदार्थ
[१] (इव) = जिस प्रकार (गावः) = गौवें (गोष्ठात्) = गोष्ठ से उदीरते बाहर आती हैं, इसी प्रकार (ओषधीनाम्) = ओषधियों के (शुष्माः) = शत्रुशोषक बल (उदीरते) = उद्गत होते हैं । इन ओषधि वनस्पतियों में वह शक्ति है जो हमारे शत्रुभूत रोगकृमियों को समाप्त कर देती है । [२] हे (पुरुष) = प्रभो ! हमारे में उन ओषधियों के शुष्म उद्गत हों जो (तव) = आपके (आत्मानं धनम्) = अपने धन को (सनिष्यन्तीनाम्) = देनेवाली हैं । अर्थात् जो आत्मतत्त्वरूप धन को प्राप्त कराती हैं। पाँचवें मन्त्र में कहा था कि इनके सेवन से चित्तवृत्ति प्रभु-प्रवण होती है, चित्तवृत्ति को प्रभु प्रवण करके ये आत्मतत्त्व रूप धन को प्राप्त करानेवाली होती हैं।
भावार्थ
भावार्थ - ओषधियाँ रोगकृमिनाशक बल से तो युक्त हैं ही। ये चित्तवृत्ति को प्रभु-प्रवण करके आत्मिक धन का भी लाभ कराती हैं।
विषय
गोष्ठ में गौओं के तुल्य देह में ओषधियों का रस-बलाधायक गुण।
भावार्थ
(गावः गोष्ठात् इव) गोशाला से जिस प्रकार गौएं आती हैं उसी प्रकार (ओषधीनां) ओषधियों के बीच में से (शुष्मा उत् ईरते) नाना प्रकार के बल उत्पन्न होते हैं। हे पुरुष उसी प्रकार (तव) तेरे (आत्मानं सनिष्यन्तीनां) देह का सेवन करने वाली इन ओषधियों का (धनं) धनवत् संञ्चित सामर्थ्य या रस भी प्राप्त होता है। (२) शत्रु को तीव्रताप देने वाला तेज ‘ओष’ है, उसको धारण करने वाली ओषधि सेनाएं हैं, वे जब नायक पुरुष और धन, वेतन आदि प्राप्त करती हैं तब उनका शत्रु-शोषक बल उठता, प्रकट होता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—२३ भिषगाथर्वणः। देवता—ओषधीस्तुतिः॥ छन्दः –१, २, ४—७, ११, १७ अनुष्टुप्। ३, ९, १२, २२, २३ निचृदनुष्टुप् ॥ ८, १०, १३—१६, १८—२१ विराडनुष्टुप्॥ त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सनिष्यन्तीनाम्-ओषधीनाम्) सनिष्यमाणानां सम्भज्यमानानां सेव्यमानानामोषधीनां (शुष्माः) बलवन्तो रसाः (गोष्ठात्-इव गावः-उत् ईरते) यथा गोस्थानात्-खलु गाव उद्गच्छन्ति तद्वदुत्प्लुत्य गच्छन्ति (पुरुष) हे रोगग्रस्त ! (तव-आत्मानम्-धनम्) तवात्मानं प्रति प्रीणनकरं रसमुत्स्रावयन्ति ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
And the strength and vitality of herbs which, O man, they bestow on you as the wealth of health for your body, mind and soul, stream forth to you like cows emerging from their stall or light rays radiating at dawn.
मराठी (1)
भावार्थ
संपूर्ण सेवन करण्यायोग्य औषधींचा ताजा, बलवान बनविणारा, रस रोग्याला दिला पाहिजे. त्यामुळे रोग्याचे शिथिल रक्त इत्यादी धातू वाढून त्याद्वारे त्याचा आत्मा, मन, शरीराला तृप्त करतात व तेजस्वी बनवितात. ॥८॥
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