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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 97/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भिषगाथर्वणः देवता - औषधीस्तुतिः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ओष॑धी॒रिति॑ मातर॒स्तद्वो॑ देवी॒रुप॑ ब्रुवे । स॒नेय॒मश्वं॒ गां वास॑ आ॒त्मानं॒ तव॑ पूरुष ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ओष॑धीः । इति॑ । मा॒त॒रः॒ । तत् । वः॒ । दे॒वीः॒ । उप॑ । ब्रु॒वे॒ । स॒नेय॑म् । अश्व॑म् । गाम् । वासः॑ । आ॒त्मान॑म् । तव॑ । पु॒रु॒ष॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ओषधीरिति मातरस्तद्वो देवीरुप ब्रुवे । सनेयमश्वं गां वास आत्मानं तव पूरुष ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ओषधीः । इति । मातरः । तत् । वः । देवीः । उप । ब्रुवे । सनेयम् । अश्वम् । गाम् । वासः । आत्मानम् । तव । पुरुष ॥ १०.९७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 97; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ओषधीः) हे ओषधियों ! (मातरः) देह का निर्माण करनेवाली (वः) तुम्हें (देवीः-इति) दिव्य गुणवाली हो, ऐसा (उप ब्रुवे) मैं वैद्य प्रशंसित करता हूँ (पुरुष) हे भिषक् या वैद्य (अश्वम्) घोड़े को (गाम्) गौ को (वासः) घर को (आत्मानम्) अपने को (तव) तेरे लाभ के लिए तेरी सेवा के लिए (सनेयम्) तुझे समर्पित करता हूँ, मुझे स्वस्थ कर दे ॥४॥

    भावार्थ

    ओषधियों को तथा औषधियों से बने हुए वटी-आदि योगों को वैद्य ऐसे तैयार करें, जिससे उनमें दिव्य गुण और शरीर को निर्माण करने की शक्तियाँ आजावें तथा वैद्य चिकित्सा करने में ऐसे कुशल हों, जो रोगी को स्वस्थ बना सकें, रोगी भी अपने रोग को दूर कराने में वैद्य के समर्पित बहुमूल्य-पदार्थ को दे, कुछ न होने पर उसकी सेवा के लिए अपने को अर्पित कर दे ॥४॥

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    विषय

    उत्कर्ष की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] ('ओषधीः इति') = ये जो ओषधियाँ हैं, वे (मातरः) = मातृतुल्य हैं। माता जैसे बालक का हित करनेवाली है, उसी प्रकार ये ओषधियाँ हित करनेवाली हैं । वस्तुतः ये हमारे जीवन का निर्माण करनेवाली हैं। (तद्) = सो (वः) = तुम्हें (देवी:) = दिव्यगुणों को पैदा करनेवाली तथा सब रोगों को जीतने की कामना करनेवाली [विजिगीषा], इस प्रकार (उपब्रुवे) = कहता हूँ। [२] हे (पूरुष) = इस ब्रह्माण्डरूप नगरी में निवास करनेवाले प्रभो ! मैं (तव) = आपकी इन ओषधियों के प्रयोग से (अश्वम्) = कर्मेन्द्रियों को (गाम्) = ज्ञानेन्द्रियों को, (वासः) = इस शरीररूप वस्त्र को तथा (आत्मनम्) = मन को (सनेयम्) = प्राप्त करनेवाला बनूँ। [३] वानस्पतिक भोजनों का समुचित प्रयोग हमारी इन्द्रियों, शरीर व मन को अवश्य उत्कृष्ट बनाएगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ये वनस्पतियाँ 'माताएँ' व 'देवियाँ' हैं। इनका प्रयोग हमारे उत्कर्ष का कारण बनता है ।

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    विषय

    ओषधियों का रश्मियों के तुल्य रोगनाशक गुण। पक्षान्तर में—शत्रुनाशक सेनाओं का वर्णन।

    भावार्थ

    (ओषधीः) हे ओषधियो ! हे (मातरः) माता के तुल्य हितकारिणी, आरोग्य देने वाली, ओषधियो ! मैं (वः) तुमको (देवीः उपब्रुवे) देवियों के तुल्य सुखप्रद और रश्मियों के तुल्य रोगनाशक रूप से तुम्हारा अन्यों को उपदेश करता हूँ। हे (पुरुष) मनुष्य ! विद्वन् ! मैं ओषधियों को प्राप्त करने के लिये (अश्वं) घोड़ा, (गां) गौ, भूमि, (वासः) वस्त्र, और (आत्मानं) अपने आप को भी (तव) तेरे निमित्त (सनेयम्) देता हूं। रोग से मुक्त होने के लिये मनुष्य सर्वस्व देने पर भी तैयार होजाता है और वैद्य की सब प्रकार से सेवा करता है। (२) विजयशालिनी सेनाएं भी ‘देवी’ हैं। वे तेज धारने से ‘ओषधि’, शत्रु नाशक होने से ‘माता’ हैं। उनको अश्व, वस्त्र, भूमि और मनुष्य सब देना आवश्यक होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—२३ भिषगाथर्वणः। देवता—ओषधीस्तुतिः॥ छन्दः –१, २, ४—७, ११, १७ अनुष्टुप्। ३, ९, १२, २२, २३ निचृदनुष्टुप् ॥ ८, १०, १३—१६, १८—२१ विराडनुष्टुप्॥ त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ओषधीः-मातरः) हे ओषधयो ! देहनिर्मात्र्यः (वः) युष्मान् (देवीः-इति-उप ब्रुवे) दिव्यः स्थ दिव्यगुणवत्यः स्थेति खल्वहं प्रशंसामि (पुरुष) हे भिषक् ! (अश्वं गां वासः-आत्मानं तव सनेयम्) अश्वं गां निवासं स्वात्मानमपि सेवार्थं तुभ्यं समर्पयामि मां चिकित्सय-स्वस्थं कुरु ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    “O herbs, mothers, divine gifts of nature,” thus do I speak of you in confidence and say: O man, the horse, the cow, the home, even your body, mind and soul, I entrust for health to the herbs.”

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    औषधी व औषधींनी बनलेल्या वटी इत्यादींना वैद्यांनी असे तयार करावे ज्यामुळे त्यांच्यात दिव्य गुण व शरीराला निर्माण करणाऱ्या शक्ती निर्माण व्हाव्यात व वैद्य चिकित्सा करण्यात असे कुशल असावेत की त्यांनी रोग्याला स्वस्थ करावे. रोग्यानेही आपले रोग दूर करविणाऱ्या वैद्याला बहुमूल्य पदार्थ द्यावेत. स्वत:जवळ काही नसल्यास त्यांची सेवा करावी. ॥४॥

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