ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 97/ मन्त्र 12
ऋषिः - भिषगाथर्वणः
देवता - औषधीस्तुतिः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यस्यौ॑षधीः प्र॒सर्प॒थाङ्ग॑मङ्गं॒ परु॑ष्परुः । ततो॒ यक्ष्मं॒ वि बा॑धध्व उ॒ग्रो म॑ध्यम॒शीरि॑व ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । ओ॒ष॒धीः॒ । प्र॒ऽसर्प॑थ । अङ्ग॑म्ऽअङ्गम् । परुः॑ऽपरुः । ततः॑ । यक्ष्म॑म् । वि । बा॒ध॒ध्वे॒ । उ॒ग्रः । म॒ध्य॒म॒शीःऽइ॑व ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यौषधीः प्रसर्पथाङ्गमङ्गं परुष्परुः । ततो यक्ष्मं वि बाधध्व उग्रो मध्यमशीरिव ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । ओषधीः । प्रऽसर्पथ । अङ्गम्ऽअङ्गम् । परुःऽपरुः । ततः । यक्ष्मम् । वि । बाधध्वे । उग्रः । मध्यमशीःऽइव ॥ १०.९७.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 97; मन्त्र » 12
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ओषधीः) ओषधियों ! (यस्य) जिस रोगी के (अङ्गम्-अङ्गम्) प्रत्येक अङ्ग को (परुः-परुः) प्रत्येक जोड़ के प्रति (प्रसपर्थ) प्राप्त होती हो तथा (ततः) पुनः (यक्ष्मम्) रोग को (वि बाधध्वे) नष्ट करो-रोग को निकलने के लिए विशेषरूप से बाधित करो (उग्रः) तीक्ष्ण (मध्यमशीः-इव) मेघों के मध्य जलों में होनेवाली विद्युत् की भाँति, जैसे विद्युत् मेघजलों को पीड़ित कर बाहर निकाल देती है ॥१२॥
भावार्थ
ओषधियों के अन्दर बड़ी भारी शक्ति है, जैसे विद्युत् के अन्दर बड़ी भारी शक्ति होने से मेघ के जलों को बाहर निकाल देती है, ऐसे ही ओषधियाँ अङ्ग-अङ्ग में और जोड़-जोड़ में बैठे रोग को बाहर निकाल देती हैं, वैद्य जन इस रीति और अनुपात से चिकित्सा करें ॥१२॥
विषय
यक्ष्म विबाधन
पदार्थ
[१] हे (ओषधी:) = ओषधियो ! (यस्य) = जिस पुरुष के (अङ्ग अङ्गम्) = अंग-अंग में तथा (परुः परुः) = पर्व-पर्व में (प्रसर्पथ) = तुम गति करती हो, (ततः) = वहाँ-वहाँ से (यक्ष्मम्) = रोग को (विबाधध्वे) = बाधित करके दूर करती हो । ओषधि का ओषधित्व है ही यह कि यह दोष का दहन कर देती है । [२] ये इस प्रकार दोषों का दहन कर देती हैं, (इव) = जैसे कि (उग्र:) = तेजस्वी (मध्यमशी:) = राष्ट्ररूपी शरीर के मध्य में स्थित होनेवाला राजा राष्ट्र शरीर के उस उस अंग व पर्व में होनेवाले दोषों को दूर करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - शरीर में पहुँचकर ओषधियाँ दोषों का दहन करनेवाली होती हैं।
विषय
ओषधियों का शरीर में व्याप कर रोगों को मध्यस्थ बलवान् द्वारा शत्रुवत् नष्ट करना।
भावार्थ
ये (ओषधीः) ओषधियां ! (यस्य) जिस मनुष्य के (अंगम्-अङ्गम् परुः २) अंग अंग और पोरु पोरु में (प्रसर्पथ) व्याप जाती हैं (उग्रः मध्यमशीः) मध्यस्थ बलवान् पुरुष के समान वे (ततः यक्ष्मं वि बाधध्वे) उसके शरीर में से रोग को नष्ट कर देती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—२३ भिषगाथर्वणः। देवता—ओषधीस्तुतिः॥ छन्दः –१, २, ४—७, ११, १७ अनुष्टुप्। ३, ९, १२, २२, २३ निचृदनुष्टुप् ॥ ८, १०, १३—१६, १८—२१ विराडनुष्टुप्॥ त्रयोविंशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ओषधीः) हे ओषधयः ! (यस्य) यस्य रुग्णस्य (अङ्गम्-अङ्गम् परुष्परुः-प्रसपर्थ) प्रत्यवयवं प्रतिपर्व च प्रसपर्थ प्राप्नुथ (ततः) पुनश्च (यक्ष्मं-वि बाधध्वे) रोगं नाशयथ (उग्रः-मध्यमशीः-इव) मेघमध्यजलेषु भवः विद्युदग्निरुग्रो जलानि तद्वन्निःसारयत ॥१२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O herbals, cure the sick whose body you spread over part by part, joint by joint, stop and throw out the disease like a sharp and aggressive mediator.
मराठी (1)
भावार्थ
औषधींमध्ये अत्यंत शक्ती आहे. जशी विद्युतमध्ये आत्यंतिक शक्ती असते, ती मेघातील जलाला बाहेर काढते. तशीच औषधी अंगांगात व सांध्यांमध्ये असलेल्या रोगांना त्रस्त करून बाहेर काढते. वैद्यांनी या रीतीने व प्रमाणांनी चिकित्सा करावी. ॥१२॥
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