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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 62/ मन्त्र 18
    ऋषिः - विश्वामित्रो जमदग्निर्वा देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    गृ॒णा॒ना ज॒मद॑ग्निना॒ योना॑वृ॒तस्य॑ सीदतम्। पा॒तं सोम॑मृतावृधा॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गृ॒णा॒ना । ज॒मत्ऽअ॑ग्निना । योनौ॑ । ऋ॒तस्य॑ । सी॒द॒त॒म् । पा॒तम् । सोम॑म् । ऋ॒त॒ऽवृ॒धा॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गृणाना जमदग्निना योनावृतस्य सीदतम्। पातं सोममृतावृधा॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गृणाना। जमत्ऽअग्निना। योनौ। ऋतस्य। सीदतम्। पातम्। सोमम्। ऋतऽवृधा॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 62; मन्त्र » 18
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे ऋतावृधा गृणाना मित्रावरुणौ युवां जमदग्निना ऋतस्य योनौ सततं सीदतं सोमं पातम् ॥१८॥

    पदार्थः

    (गृणाना) स्तुवन्तौ (जमदग्निना) चक्षुषा प्रत्यक्षेण (योनौ) गृहे (ऋतस्य) सत्याचारस्य (सीदतम्) वसतम् (पातम्) रक्षतम् (सोमम्) ऐश्वर्य्यम् (ऋतावृधा) सत्यवर्द्धकौ ॥१८॥

    भावार्थः

    त एवाऽध्यापकोपदेशका भवितुमर्हन्ति ये प्रत्यक्षादिभिः प्रमाणैः पृथिवीमारभ्य परमेश्वरपर्य्यन्तान् पदार्थान्त्साक्षात्कृत्वा सत्यविद्याचरणवृद्धिप्रिया धर्म्येण पथा गच्छेयुस्ते सत्कर्त्तुमर्हाः स्युरिति ॥१८॥ अत्र मित्राऽध्यापकाऽध्येतृश्रोत्रुपदेशकपरमात्मविद्वत्प्राणोदानादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति तृतीये मण्डले द्विषष्टितमं सूक्तं पञ्चमोऽनुवाकस्तृतीयाष्टक एकादशो वर्गस्तृतीयञ्च मण्डलं समाप्तम् ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    (ऋतावृधा) सत्य के बढ़ानेवाले (गृणाना) स्तुति करते हुए अध्यापक और उपदेशक आप दोनों (जमदग्निना) नेत्र अर्थात् प्रत्यक्ष से (ऋतस्य) सत्य आचरण के (योनौ) स्थान में निरन्तर (सीदतम्) वसो और (सोमम्) ऐश्वर्य्य की (पातम्) रक्षा करो ॥१८॥

    भावार्थ

    वे ही अध्यापक और उपदेशक होने के योग्य हैं कि जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से पृथिवी को लेकर परमेश्वरपर्य्यन्त पदार्थों का साक्षात्कार करके सत्यविद्या के आचरण की वृद्धि जिनको प्रिय, जो धर्मयुक्त मार्ग में जावैं, वे सत्कार करने के योग्य होवैं ॥१८॥ इस सूक्त में मित्र अध्यापक पढ़नेवाले श्रोता उपदेशक परमात्मा विद्वान् प्राण और उदान आदि के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्वसूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, ऐसा जानना चाहिये ॥ यह तीसरे मण्डल में बासठवाँ सूक्त पाँचवाँ अनुवाक, तीसरे अष्टक में ग्यारहवाँ वर्ग और तृतीय मण्डल समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    ऋत की योनि में

    पदार्थ

    [१] हे मित्रावरुणा स्नेह व निष्पापता के देवताओ! आप (जमदग्निना) = दीप्त जाठराग्निवाले से (गृणाना) = स्तुति किये जाते हुए (ऋतस्य यो नौ) = ऋत की योनि में ऋत के उत्पत्ति स्थान प्रभु में (सीदतम्) = आसीन होओ। वस्तुतः ईर्ष्या-द्वेष आदि के अभाव में तथा पापवृत्ति के न होने पर शरीर ठीक बना रहता है- जाठराग्नि अपना कार्य ठीक प्रकार से करती है। इस प्रकार यह पूर्ण स्वस्थ पुरुष परमात्मा को पानेवाला बनता है। [२] हे (ऋतावृधा) = ॠत का वर्धन करनेवाले मित्रवरुणो ! आप (सोमं पातम्) = सोम का पान करो। मित्रता व निष्पापता मनुष्य को सोमरक्षण के योग्य बनाते हैं। मित्रता व निष्पापता से जीवन में ऋत का वर्धन होता है। यह ऋत [regularity] सोमरक्षण में सहायक होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- मित्रता व निष्पापता सोमरक्षण में सहायक होते हैं और हमें प्रभुप्राप्ति के योग्य बनाते हैं।यह सूक्त जितेन्द्रिय बनकर निष्पाप बनने के भाव से प्रारम्भ हुआ था, समाप्ति पर सब के प्रति स्नेहवाला बनकर निष्पाप बनने के लिए प्रेरित कर रहा है। यह निष्पाप व्यक्ति अब चतुर्थ मण्डल के प्रारम्भ में 'अग्नि' नाम से प्रभु का स्मरण करता है।

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    विषय

    मित्र वरुण अर्थात् स्त्री पुरुषों को उपदेश।

    भावार्थ

    हे उत्तम स्त्री पुरुषो ! (जमदग्नि) प्रज्वलित अग्नि के समान सत्य का प्रकाश करने वाले विज्ञानमय विद्वान् वा चक्षु से विवेक करके (गृणाना) उपदेश करते हुए आप दोनो ! (ऋतस्य योनौ) अन्न से पूर्ण गृह के समान (सीदतम्) विराजो। और दोनों (ऋतवृधा) अन्न के तुल्य नित्य सेवनीय धन वा सत्य के बल से बढ़ते हुए (सोमं) उत्पन्न सन्तान का (पातं) पालन करो (सोमं पातं) ऐश्वर्य का उपभोग करो, उत्तम बल, ओषधिरस का पान करो। इत्येकादशो वर्गः। इति पञ्चमोऽनुवाकः॥

    टिप्पणी

    * इति तृतीयं मण्डलं समाप्तम् *

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्रः। १६–१८ विश्वामित्रो जमदग्निर्वा ऋषिः॥ १-३ इन्द्रावरुणौ। ४–६ बृहस्पतिः। ७-९ पूषा। १०-१२ सविता। १३–१५ सोमः। १६–१८ मित्रावरुणौ देवते॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। ३ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ५, १०, ११, १६ निचृद्गायत्री। ६ त्रिपाद्गायत्री। ७, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १७, १८ गायत्री॥ अष्टदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तेच अध्यापक व उपदेशक होण्यायोग्य असतात, जे प्रत्यक्ष इत्यादी प्रमाणांनी पृथ्वीपासून परमेश्वरापर्यंत पदार्थांचा साक्षात्कार करतात. सत्याचरणप्रिय असून धर्ममार्गाने जातात त्यांचाच सत्कार केला पाहिजे. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mitra and Varuna, friends of humanity dedicated to love and justice, exalted by life and acts of truth, exalting universal law and the flow of existence, celebrated by men of vision dedicated to rational and empirical experience of reality, abide in the house of truth and righteousness on the vedi of yajna, protect, promote and enjoy the beauty, peace and ecstasy of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of peoples educators are highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O disseminators of truth! O admirers of noble virtues, teachers and preachers! you are dear to us like Prana and Udāna, and abide always in truthful knowledge and conduct with the help of perception and other means, and thus protect great wealth of all kinds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons only are capable to be teachers and preachers who visualize all coming events ahead, from earth to God, with perception and other means. Indeed, such person's love that expansion of true knowledge and conduct and follow the path of Dharma (righteousness). They in indeed, deserve all honor.

    Foot Notes

    (गृणाना) स्तुक्तौ। = Admiring. (जमद्ग्निना) चक्षुषा प्रत्यक्षेण । चक्षुर्वा जमदग्निर्ऋषिः यदेनेन जगत, पश्यति। = With perception achieved through the eyes and other means. In accordance with the established traditions, the words Jamadagni etc., are not Proper Nouns, as given by Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others. The Shatapatha Brahman and Nighantu do not corroborate it to be Proper Noun.— अथौमनुते तस्माच्चक्षु जमदग्निऋषिः (Stph. 8, 1, 2, 3 ).

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