ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 62/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒यमु॑ वां पुरु॒तमो॑ रयी॒यञ्छ॑श्वत्त॒ममव॑से जोहवीति। स॒जोषा॑विन्द्रावरुणा म॒रुद्भि॑र्दि॒वा पृ॑थि॒व्या शृ॑णुतं॒ हवं॑ मे॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । ऊँ॒ इति॑ । वा॒म् । पु॒रु॒ऽतमः॑ । र॒यि॒ऽयन् । श॒श्व॒त्ऽत॒मम् । अव॑से । जो॒ह॒वी॒ति॒ । स॒ऽजोषौ॑ । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒ । म॒रुत्ऽभिः॑ । दि॒वा । पृ॒थि॒व्या । शृ॒णु॒त॒म् । हव॑म् । मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमु वां पुरुतमो रयीयञ्छश्वत्तममवसे जोहवीति। सजोषाविन्द्रावरुणा मरुद्भिर्दिवा पृथिव्या शृणुतं हवं मे॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। ऊँ इति। वाम्। पुरुऽतमः। रयिऽयन्। शश्वत्ऽतमम्। अवसे। जोहवीति। सऽजोषौ। इन्द्रावरुणा। मरुत्ऽभिः। दिवा। पृथिव्या। शृणुतम्। हवम्। मे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 62; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्रावरुणा यथा विद्युज्जले मरुद्भिर्दिवा पृथिव्या सह वर्त्तित्वा सुखं प्रयच्छतो यथाऽयमु पुरुतमो रयीयन् वामवसे शश्वत्तमं जोहवीति तथा सजोषौ युवां मे हवं शृणुतम् ॥२॥
पदार्थः
(अयम्) राजा (उ) वितर्के (वाम्) युवयोः (पुरुतमः) अतिशयेन बहुः (रयीयन्) आत्मनो रयिमिच्छन् (शश्वत्तमम्) अनादिभूतम् (अवसे) रक्षणाद्याय (जोहवीति) भृशं ददाति (सजोषौ) समानप्रीतिसेवनौ (इन्द्रावरुणा) विद्युज्जले इव वर्त्तमानौ (मरुद्भिः) वायुभिरिव श्रोत्रिभिः (दिवा) सूर्य्येण (पृथिव्या) भूम्या (शृणुतम्) (हवम्) स्तवनम् (मे) मम ॥२॥
भावार्थः
यथा राजाऽध्यापकोपदेशकाश्च सर्वेषां रक्षावृद्धिविद्याप्रवेशाय शिक्षां कुर्वन्ति तथैव परस्परेषां प्रशंसया पृथिव्यादिष्वैश्वर्य्याणि प्रयत्नेन प्राप्य परस्परेषु प्रीतिमन्तः सर्वे मनुष्यास्सन्तु ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्रावरुणा) बिजुली और जल के सदृश वर्त्तमान (मरुद्भिः) पवनों के सदृश सुननेवाले जनों से (दिवा) सूर्य और (पृथिव्या) भूमि के साथ वर्त्तमान होकर आप सुख देते हैं और जैसे (अयम्) यह राजा (उ) क्या (पुरुतमः) अतिशय करके बहुत (रयीयन्) अपने धन की इच्छा करता हुआ (वाम्) आप दोनों की (अवसे) रक्षा आदि के लिये (शश्वत्तमम्) अनादि काल से सिद्ध पदार्थ को (जोहवीति) वारंवार देता है वैसे (सजोषौ) तुल्य प्रीति के सेवन करनेवाले आप दोनों (मे) मेरी (हवम्) स्तुति को (शृणुतम्) सुनिये ॥२॥
भावार्थ
जैसे राजा, अध्यापक और उपदेशक लोग सबके रक्षा वृद्धि और विद्या में प्रवेश होने के लिये शिक्षा करते हैं, वैसे ही परस्पर की प्रशंसा से पृथिवी आदिकों में ऐश्वर्यों को प्रयत्न से प्राप्त करके परस्पर में प्रीतिवाले सब मनुष्य होओ ॥२॥
विषय
रयीयन्-वास्तविक ऐश्वर्य की कामनावाला
पदार्थ
[१] हे (इन्द्रावरुणा) = इन्द्र और वरुण देवो! (अयम्) = यह (उ) = निश्चय से (वाम्) = आपका (पुरुतमा) = अधिक से अधिक पालन व पूरण करनेवाला, अर्थात् अधिक से अधिक जितेन्द्रिय व निष्पाप बननेवाला व्यक्ति (रयीयन्) = वास्तविक ऐश्वर्य को चाहता हुआ (शश्वत्तमम्) = सदा (अवसे) = रक्षण के लिए (जोहवीति) = पुकारता है। इसकी यही प्रार्थना होती है कि मैं इन्द्रियों को वश में करनेवाला बनूँ और पाप से निवृत्त रहूँ, ताकि वास्तविक ऐश्वर्य का लाभ कर सकूँ । [२] हे इन्द्रावरुणा ! (मरुद्भिः) = प्राणों के साथ (दिवा) = मस्तिष्करूप द्युलोक के साथ (पृथिव्या) = शरीररूप पृथिवी के साथ (सजोषा) = समानरूप से प्रीतिवाले होते हुए आप (मे हवम्) = मेरी प्रार्थना को (शृणुतम्) = सुनिए। प्राणसाधना द्वारा मस्तिष्क व शरीर दोनों ही सुन्दर बनते हैं। यह साधना हमें जितेन्द्रिय व निष्पाप बनाती है। जितेन्द्रियता से शरीर की शक्तियाँ स्थिर बनी रहती हैं- शरीररूप पृथिवी दृढ़ बनी रहती है। निष्पापता से मस्तिष्क ठीक रहता है। मस्तिष्करूप द्युलोक को निष्पापता ही दीप्त रखती है।
भावार्थ
भावार्थ – प्राणसाधना, [मरुत्] स्वाध्याय [दिवा] व इन्द्रिय-विजय हमारे जीवन का उत्तमता से रक्षण करते हैं ।
विषय
सूर्य मेघवत् राजा सेनापति के कर्त्तव्यों का उपदेश इन्द्र, वरुण, बृहस्पति, पूषा आदि नाना विद्वानों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्द्रा वरुणौ) सूर्य और मेघ के तुल्य ऐश्वर्यवान् सब दुःखों को वारण करने हारे वा दिन रात की तुल्य प्रधान नायक स्त्री पुरुषो ! (अयम्) यह (वां) तुम दोनों के (रयीयन्) ऐश्वर्य की कामना करने वाला (पुरुतमः) बहुत संख्या वाला है जो (शश्वत्तमम्) सदा तुम दोनों को (अवसे) अपनी रक्षा के लिये (जोहवीति) पुकारता है। आप दोनों (सजोषौ) समान प्रीतियुक्त होकर (मरुद्भिः) वायुगणों के तुल्य बलवान् पुरुषों सहित (दिवा पृथिव्या) सूर्य और पृथिवी दोनों के तुल्य उत्पादक और आश्रय होकर (मे हवं) मेरे वचन को (शृणुतं) श्रवण करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः। १६–१८ विश्वामित्रो जमदग्निर्वा ऋषिः॥ १-३ इन्द्रावरुणौ। ४–६ बृहस्पतिः। ७-९ पूषा। १०-१२ सविता। १३–१५ सोमः। १६–१८ मित्रावरुणौ देवते॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। ३ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ५, १०, ११, १६ निचृद्गायत्री। ६ त्रिपाद्गायत्री। ७, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १७, १८ गायत्री॥ अष्टदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे राजा, अध्यापक, उपदेशक, सर्वांचे रक्षण, वृद्धी व विद्या यासाठी शिक्षण देतात तसेच प्रयत्नाने पृथ्वीवरील ऐश्वर्य प्राप्त करून परस्पर प्रशंसा करून प्रीतीने राहणारी माणसे असावीत. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This first and most eminent yajaka of all, desirous of wealth, honour and excellence of permanent nature, invokes and calls upon you. Hence you, Indra and Varuna, harbingers of power and peace, together with the winds, heaven and earth, triple energies of wind, light and earth, listen to the call and prayer of mine.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of ideal teachers and preachers are continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers ! you are like benevolent electricity and water, and this virtuous king invites you reverently for his protection with a desire to have abundant wealth of all kinds. As electricity with the association of the winds, sun and earth gives happiness to all, so loving and serving one another you listen to my invocation.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As a king, teachers, and preachers give instructions to all regarding protection, advancement and education, likewise, all men should deserve praise and attain prosperity on earth by industriousness towards one another.
Foot Notes
(इन्द्रावरुणा ) विद्युज्जले इव वर्तमानो अध्यापकोदेशकौ । = Teachers and preachers who are benevolent like electricity and water. (मरुद्भिः ) वायुभिरिव श्रोतृभिः । = With listeners who are like winds.
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