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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 18/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ग्निर्न शुष्कं॒ वन॑मिन्द्र हे॒ती रक्षो॒ नि ध॑क्ष्य॒शनि॒र्न भी॒मा। ग॒म्भी॒रय॑ ऋ॒ष्वया॒ यो रु॒रोजाध्वा॑नयद्दुरि॒ता द॒म्भय॑च्च ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । न । शुष्क॑म् । वन॑म् । इ॒न्द्र॒ । हे॒ती । रक्षः॑ । नि । ध॒क्षि॒ । अ॒शनिः॑ । न । भी॒मा । ग॒म्भी॒रया॑ । ऋ॒ष्वया॑ । यः । रु॒रोज॑ । अध्व॑नयत् । दुः॒ऽइ॒ता । द॒म्भय॑त् । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्न शुष्कं वनमिन्द्र हेती रक्षो नि धक्ष्यशनिर्न भीमा। गम्भीरय ऋष्वया यो रुरोजाध्वानयद्दुरिता दम्भयच्च ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। न। शुष्कम्। वनम्। इन्द्र। हेती। रक्षः। नि। धक्षि। अशनिः। न। भीमा। गम्भीरया। ऋष्वया। यः। रुरोज। अध्वनयत्। दुःऽइता। दम्भयत्। च ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 18; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र राजन् ! योऽग्निर्यथा शुष्कं वनं न रक्षो धक्षि यस्य ते हेतिरशनिर्न भीमा सेनास्ति तया भवान् ऋष्वया गम्भीरया शत्रून् रुरोज तमध्वानयद्दुरिता च दम्भयत् तेन यतो रक्षो नि धक्षि तस्मादपराजितोऽसि ॥१०॥

    पदार्थः

    (अग्निः) पावकः (न) इव (शुष्कम्) (वनम्) जङ्गलम् (इन्द्र) दुष्टताविदारक (हेतिः) वज्रः (रक्षः) दुष्टं जनम् (नि) नितराम् (धक्षि) दहसि (अशनिः) स्तनयित्नुः (न) इव (भीमा) बिभेति यस्याः सा (गम्भीरया) अगाधबलया (ऋष्वया) महत्या (यः) (रुरोज) शत्रून् रुजति (अध्वानयत्) धुनयति (दुरिता) दुष्टाचरणानि (दम्भयत्) दम्भयति हिंसयति (च) ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे राजादयो जना ! यथाग्निर्ज्वालया शुष्कमार्द्रमपि वनं दहति तथा सुशिक्षितया महत्या सेनया शत्रूणां भयं कुर्य्यात् दुष्टाञ्छत्रून् दहत ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) दुष्टता के नाशक राजन् ! (यः) जो (अग्निः) अग्नि जैसे (शुष्कम्) सूखे (वनम्) वन को (न) वैसे (रक्षः) दुष्ट जन को (धक्षि) जलाते हो और जिन आपका (हेतिः) वज्र (अशनिः) बिजुली (न) जैसे वैसे (भीमा) जिनसे जन भय करते वह सेना है उस (ऋष्वया) बड़ी (गम्भीरया) अथाह बलयुक्त सेना से आप शत्रुओं को (रुरोज) रोगयुक्त करते हो उसको (अध्वानयत्) कंपाते हो और (दुरिता) दुष्ट आचरणों को (च) भी (दम्भयत्) नष्ट करते हो उससे जिस कारण दुष्टजन को (नि) अत्यन्त जलाते हो, इससे अपराजित हो ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे राजा आदि जनो ! जैसे अग्नि ज्वाला से सूखे और गीले भी वन को जलाता है, वैसे उत्तम प्रकार शिक्षित तथा बड़ी सेना से शत्रुओं को भय करिये और शत्रुओं को जलाइये ॥१०॥

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    विषय

    बिजुलीवत् शत्रुओं का नाश।

    भावार्थ

    ( अग्निः शुष्कं वनं न ) आग जिस प्रकार सूखे वन को भस्मसात् कर देती है, और जिस प्रकार ( भीमा अशनिः न ) भयंकर विजुली पड़कर वृक्षादि को जलाती है और प्रहार करती है उसी प्रकार हे (इन्द्र) इन्द्र ( यः ) जो तू ( रुरोज) शत्रु बल को भङ्ग करता ( अध्वनयत् ) घोर नाद करता, और ( दुरिता ) दुष्ट आचारों को भी ( दम्भयत् च ) विनाश करता है, वह तू हे शत्रुहन्तः ! ( हेतिः ) आघातकारी होकर स्वयं ( गम्भीरया ) अति बलवती, गम्भीर नाद करने वाली ( ऋष्वया ) बड़ी भारी, शक्ति से युक्त होकर ( रक्षः नि धक्षि ) दुष्ट पुरुष को भस्म कर डाल । इति पञ्चमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ९, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ८, ११, १३ त्रिष्टुप् । ७, १० विराट् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक त्रिष्टुप् । ३, १५ भुरिक् पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ ब्राह्म्युष्णिक्॥

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    विषय

    'गम्भीर ऋष' हेति

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (न) = जैसे (शुष्कं वनम्) = सूखे वन को (अग्निः) = आग जला देती है, उसी प्रकार तू (हेती) = अपने वज्र के द्वारा, क्रियाशीलतारूप वज्र के द्वारा [हि गतौ] (रक्षः निधक्षि) = राक्षसी भावों को भस्म कर देता है। तू इनके लिये (भीमा अशनिः न) = भयङ्कर विद्युत् के समान होता है। विद्युत्पतन से वृक्षों का नामोनिशान नहीं रहता, इसी प्रकार तू क्रियाशीलता से इन राक्षसीभावों का अन्त करता है । [२] (यः) = जो तू (गम्भीरया ऋष्वया) = गम्भीर व महान् हेति से, क्रियाशीलतारूप वज्र से (रुरोज) = इन आसुरभावों का भंग करता है, इन (दुरिता) = पापों को (अध्वानयत्) = रुला देता है, आधार विनाश से ये रो उठते हैं, (च) = और (दम्भयत्) = तू इनका विनाश करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ– क्रियाशीलता रूप वज्र को धारण करके आसुरीभावों का विनाश करता है। हमारी क्रियाएँ गम्भीर व महान् हों हम इन क्रियाओं में तत्पर होकर शत्रुओं का अन्त कर दें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे राजा इत्यादींनो ! जसा अग्नी शुष्क व आर्द्र वनालाही जाळतो तसे प्रशिक्षित विशाल सेनेने शत्रूंना भयभीत करा आणि त्यांचे दहन करा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as fire burns down dry forest woods to ash, so Indra, O lord ruler awful as thunder, shatter the forces of terror and destruction, you who, with a mighty blow of the weapon of justice and punishment, crush the evils of fear, deceit and terror.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a king do is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ( destroyer of wickedness ) ! as the fire burns the dry forest, so burn the Rakshasas (demons). Your army is fierce like the lightning, with that great and deep army, smite down all enemies, shake them and destroy all wicked conduct. As you burn all Rakshasas ( demons ), you are invincible.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king and officers of the State ! as the fire burns all forest (whether dry or wet ), in the same manner, with well-trained and great army, frighten your foes and burn the most wicked enemies

    Foot Notes

    (हेति:) वज्रः हितिर्हन्तेः (NKT 6, 1, 3) तस्माद् हननसाधनं शस्त्रम्। = Thunderbolt like powerful weapon (दम्भयत्) दम्भयति हिंसयति । दम्नोति वधकर्मा (NG 2,19)। = Destroys. (अध्यानयत्) धुनयति | = Shakes.

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