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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 18/ मन्त्र 15
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अनु॒ द्यावा॑पृथि॒वी तत्त॒ ओजोऽम॑र्त्या जिहत इन्द्र दे॒वाः। कृ॒ष्वा कृ॑त्नो॒ अकृ॑तं॒ यत्ते॒ अस्त्यु॒क्थं नवी॑यो जनयस्व य॒ज्ञैः ॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । तत् । ते॒ । ओजः॑ । अम॑र्त्याः । जि॒ह॒ते॒ । इ॒न्द्र॒ । दे॒वाः । कृ॒ष्व । कृ॒त्नो॒ इति॑ । अकृ॑तम् । यत् । ते॒ । अस्ति॑ । उ॒क्थम् । नवी॑यः । ज॒न॒य॒स्व॒ । य॒ज्ञैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु द्यावापृथिवी तत्त ओजोऽमर्त्या जिहत इन्द्र देवाः। कृष्वा कृत्नो अकृतं यत्ते अस्त्युक्थं नवीयो जनयस्व यज्ञैः ॥१५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु। द्यावापृथिवी इति। तत्। ते। ओजः। अमर्त्याः। जिहते। इन्द्र। देवाः। कृष्व। कृत्नो इति। अकृतम्। यत्। ते। अस्ति। उक्थम्। नवीयः। जनयस्व। यज्ञैः ॥१५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 18; मन्त्र » 15
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे कृत्नो इन्द्र ! ते तव सकाशाद्येऽमर्त्या देवा यदकृतं नवीय उक्थमस्ति तत्ते जिहते द्यावापृथिवी अनु जिहते तास्त्वं यज्ञैर्जनयस्वोजः कृष्वा ॥१५॥

    पदार्थः

    (अनु) (द्यावापृथिवी) भूमिसूर्य्यौ (तत्) (ते) तव (ओजः) पराक्रमम् (अमर्त्याः) साधारणमनुष्यस्वभावाद्विलक्षणाः (जिहते) प्राप्नुवन्ति (इन्द्र) राजन् (देवाः) (कृष्वा) कुरुष्व। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (कृत्नो) कर्त्तः (अकृतम्) अक्रियमाणं कर्म्म (यत्) (ते) तव (अस्ति) (उक्थम्) वक्तुमर्हम् (नवीयः) अतिशयेन नूतनं वचनम् (जनयस्व) (यज्ञैः) सङ्गतिमयैर्व्यवहारैः ॥१५॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यूयं भूमिविद्युदादिविद्यया नवीनं नवीनं कार्यं साध्नुतेति ॥१५॥ अत्रेन्द्रविद्वद्राजगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टादशं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (कृत्नो) करनेवाले (इन्द्र) राजन् ! (ते) आपके समीप से जो (अमर्त्याः) साधारण मनुष्यों के स्वभाव से विलक्षण स्वभाववाले (देवाः) विद्वान् जन (यत्) जो (अकृतम्) नहीं किया गया कर्म और (नवीयः) अतिशय नवीन वचन (उक्थम्) कहने योग्य (अस्ति) है (तत्) उस (ते) आपके वचन को (जिहते) प्राप्त होते और (द्यावापृथिवी) भूमि और सूर्य को (अनु) पश्चात् प्राप्त होते हैं उनको आप (यज्ञैः) मेल करनेरूप व्यवहारों से (जनयस्व) प्रकट कीजिये और (ओजः) पराक्रम को (कृष्वा) करिये ॥१५॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोग भूमि और बिजुली आदि की विद्या से नवीन-नवीन कार्य को सिद्ध करिये ॥१५॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान् और राजा के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह अठारहवाँ सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    प्रधान के स्तुत्य कार्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! अन्नों के देने वाले ! ( अमर्त्याः ) न मरने वाले, दीर्घजीवी ( देवाः ) विद्वान् और दानशील प्रजाजन, द्यावापृथिवी अनु ) सूर्य और पृथिवी का अनुकरण करते हुए ( ते तत्) तेरे उस ( ओजः ) पराक्रम को ( अनु जिहत ) प्राप्त करें । ( यत् ते ) और जो ( ते ) तेरा ( अकृतं ) न किया हुआ काम ( अस्ति ) है हे ( कृत्नो ) करने वाले पुरुष ! तू उसको भी ( कृष्व ) करले । और ( यज्ञैः) परस्पर आदर सत्कार और सत्संगों द्वारा (नवीयः ) अति स्तुत्य, उत्तमोत्तम (उक्थं जनयस्व) वचन, वेद ज्ञानमय उपदेश को प्रकट कर । इति पष्टो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ९, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ८, ११, १३ त्रिष्टुप् । ७, १० विराट् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक त्रिष्टुप् । ३, १५ भुरिक् पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ ब्राह्म्युष्णिक्॥

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    विषय

    खाली समय का उपयोग

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यवन् प्रभो! (अमर्त्याः देवाः) = विषय-वासनाओं के पीछे न मरनेवाले देववृत्ति के पुरुष (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्करूप द्युलोक में तथा शरीररूप पृथिवी में (ते) = आपके (तत् ओजः) = उस प्रसिद्ध बल को (अनुजिहते) = अनुकूलता से प्राप्त होते हैं। आपकी उपासना से ही उनका मस्तिष्क ज्ञानदीप्त व शरीर सशक्त बनता है। [२] आप इन अपने प्रिय पुत्रों को यही उपदेश देते हैं कि हे (कृत्नो) = कर्त्तव्य-कर्म-परायण जीव! (यत् ते अकृतं अस्ति) = जो तेरा कर्त्तव्य-कर्म अवशिष्ट है उसे (कृष्व) = कर। और इन कर्त्तव्य कर्मों को करके अवशिष्ट सारे समय में (यज्ञैः) = लोकहित के लिए किये जानेवाले श्रेष्ठ कर्मों के साथ (नवीयः) = अत्यन्त स्तुत्य (उक्थम्) = प्रशंसनीय वेदज्ञान व स्तोत्रों को (जनयस्व) = उत्पन्न कर । तेरा अपने कर्त्तव्यों से अवशिष्ट समय इन यज्ञों स्तोत्रों व ज्ञान प्राप्ति में ही बीते ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु की उपासना से दीप्त मस्तिष्क व सशक्त शरीर को प्राप्त करें। कर्त्तव्य कर्मों को करके यज्ञों व स्तोत्रों में अवशिष्ट समय को बिताएँ । अगले सूक्त में भी भरद्वाज बार्हस्पत्य इन्द्र का स्तवन करते हैं -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! तुम्ही भूमी, विद्युत इत्यादी विद्येद्वारे नवनवीन कार्य सिद्ध करा. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord omnipotent, heaven and earth and the immortals and brilliants of nature and humanity move in observance of that support and splendour of yours. O lord of action, inspire us to accomplish what is yet to be accomplished and to create the latest songs of adoration by yajnas and yajnic acts of social development for all.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king! doer of good deeds, from your wisemen who are different from ordinary mortals in their virtues and nature, receive quite a new teaching which is worth uttering. The heaven and earth get that new teaching from you. Manifest those significant words and teachings from the Yajnas- unifying dealings and manifest your manliness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! by the knowledge of the science of the earth and electricity etc. accomplish new and ever new acts.

    Foot Notes

    (अमर्त्या:) साधारणमनुष्यस्वभावाद्विलक्षणाः । सत्यमेव देवा: अन्नृतं मनुष्या: (Stph 1, 1, 1, 4)। = Different from the nature of ordinary mortals. (जिहते) प्राप्नुवन्ति । ( जिहते ) ओहाङ - गतौ (जुही०) । = Attain, receive. (यज्ञैः) सङ्गतिमयै व्यवहारैः । यज-देवपूजासङ्गतिकरण दानेषु अत्र सङ्गति करणार्थग्रहणम् । = By unifying good acts.

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