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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 18/ मन्त्र 14
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अनु॒ त्वाहि॑घ्ने॒ अध॑ देव दे॒वा मद॒न्विश्वे॑ क॒वित॑मं कवी॒नाम्। करो॒ यत्र॒ वरि॑वो बाधि॒ताय॑ दि॒वे जना॑य त॒न्वे॑ गृणा॒नः ॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । त्वा॒ । अहि॑ऽघ्ने । अध॑ । दे॒व॒ । दे॒वाः । मद॑न् । विश्वे॑ । क॒विऽत॑मम् । क॒वी॒नाम् । करः॑ । यत्र॑ । वरि॑वः । बा॒धि॒ताय॑ । दि॒वे । जना॑य । त॒न्वे॑ । गृ॒णा॒नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु त्वाहिघ्ने अध देव देवा मदन्विश्वे कवितमं कवीनाम्। करो यत्र वरिवो बाधिताय दिवे जनाय तन्वे गृणानः ॥१४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु। त्वा। अहिऽघ्ने। अध। देव। देवाः। मदन्। विश्वे। कविऽतमम्। कवीनाम्। करः। यत्र। वरिवः। बाधिताय। दिवे। जनाय। तन्वे। गृणानः ॥१४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 18; मन्त्र » 14
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे देव ! यत्र बाधिताय दिवे जनाय तन्वो वरिवो गृणानः करोऽस्ति तत्राहिघ्ने सूर्य्यायेव यं कवीनां कवितमं त्वा विश्वे देवा अनु मदन् तं त्वामाश्रित्याध सततं वयं सुखिनः स्याम ॥१४॥

    पदार्थः

    (अनु) (त्वा) त्वाम् (अहिघ्ने) योऽहिं हन्ति तस्मै सूर्य्याय (अध) अथ (देव) विद्वन् (देवाः) विद्वांसः (मदन्) आनन्दयन्ति (विश्वे) सर्वे (कवितमम्) अतिशयेन विद्वांसम् (कवीनाम्) विदुषाम् (करः) यः करोति सः (यत्र) (वरिवः) परिचरणम् (बाधिताय) विलोडिताय (दिवे) कामयमानाय (जनाय) (तन्वे) शरीराय (गृणानः) स्तुवन् ॥१४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या उत्तमानाप्तान् विदुषः संसेव्य विद्याः प्राप्यान्यान् बोधयन्ति ते मोदिता अनुजायन्ते ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (देव) विद्वन् ! (यत्र) जहाँ (बाधिताय) विलोडित हुए (दिवे) कामना करते हुए (जनाय) जनके और (तन्वे) शरीर के लिये (वरिवः) सेवन की (गृणानः) स्तुति करता हुआ जन (करः) कार्य्यों को करनेवाला है वहाँ (अहिघ्ने) मेघ को नष्ट करनेवाले सूर्य के लिये जैसे वैसे जिस (कवीनाम्) विद्वानों के मध्य में (कवितमम्) अत्यन्त विद्वान् (त्वा) आपको (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् जन (अनु, मदन्) आनन्दित करते हैं, उन आप का आश्रयण करके (अध) इसके अनन्तर निरन्तर हम लोग सुखी होवें ॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य उत्तम, यथार्थवक्ता, विद्वानों का उत्तम प्रकार सेवन कर विद्याओं को प्राप्त होकर अन्यों को जानते हैं, वे प्रसन्न होते हैं ॥१४॥

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    विषय

    शासन, दान, उन्नयन, शक्तिवर्धन।

    भावार्थ

    हे ( देव ) राजन् ! दानशील ! तेजस्विन् ! ( यत्र ) जहां ( बाधिताय ) पीड़ित, दुःखित और ( दिवे ) कामना, युक्त, इच्छुक, ( जनाय तन्वे ) प्रजाजन के शरीर के सुख के लिये ( गृणान: ) उत्तम उपदेश करता हुआ तू ही ( वरिवः ) उत्तम धन तथा सेवा ( करः ) करने हारा है उस देश में ( कवीनां कवितमम् ) विद्वान् क्रान्तदर्शी, दूरदर्शी पुरुषों में श्रेष्ठ विद्वान् ( त्वा ) तुझको ही ( विश्वे देवाः ) समस्त प्रजा के मनुष्य प्राप्त करके (अहि-ध्ने) शत्रु के नाश करने के लिये वा मेघनाशक सूर्यवत् तेजस्वी पद प्राप्त करने के लिये ( अनुमदत् ) तेरे अनुकूल रहकर प्रसन्न होते हैं और ( त्वा अनुमदन ) तेरी ही स्तुति करते हैं, तुझे ही प्रधान पद के लिये प्रस्तुत और समर्थन करते हैं। दुःखित जनों के सुखार्थ सेवा और धनार्पण करने हारे, त्यागी, देशसेवक को ही प्रधान पद पर प्रस्तुत करना चाहिये ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ९, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ८, ११, १३ त्रिष्टुप् । ७, १० विराट् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक त्रिष्टुप् । ३, १५ भुरिक् पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ ब्राह्म्युष्णिक्॥

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    विषय

    'अहि- हन्ता' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (देव) = प्रकाशमय प्रभो ! (विश्वे देवाः) = सब देववृत्ति के पुरुष (अहिघ्ने) = ज्ञान को विनष्ट करनेवाली वासना के विनाश के निमित्त (त्वा अनुमदन्) = आपका स्तवन करते हैं। आपका स्तवन (वासना) = विनाश के द्वारा उनके ज्ञान का कारण बनता है । आप ही तो (कवीनां कवितमम्) = ज्ञानियों के भी ज्ञानी हैं, देवों के देव हैं, गुरुओं के गुरु हैं 'स पूर्वेषामणि गुरु: ० ' । [२] (यत्र) = जिस स्तुति के होने पर (गृणान:) = ज्ञानोपदेश करते हुए आप (बाधिताय जनाय) = भौतिक आवश्यकताओं से बाधित इस पुरुष के लिए (दिवे) = ज्ञान-प्रकाश के वर्धन के लिए व (तन्वे) = शरीररक्षण के लिए (वरिवः) = धन को (करः) = करते हैं। धन के दो ही मुख्य उद्देश्य हैं- [क] शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति तथा [ख] ज्ञानवृद्धि के साधनों को जुटाना।

    भावार्थ

    भावार्थ- देववृत्ति के पुरुष प्रभु का स्तवन करते हैं। प्रभु ही इनकी वासना का विनाश करते हैं। प्रभु ही शरीर रक्षा व ज्ञानवृद्धि के साधनों को जुटाने के लिए आवश्यक धन देते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे उत्तम विद्वानाकडून उत्तम प्रकारे विद्या शिकतात व इतरांना शिकवितात ती प्रसन्न असतात. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Refulgent lord, brilliant sages of the world rejoice in unison with you in honour as the dispeller of demonic darkness and adore you as wisest of divine visionaries since, adored and exalted by them, you bring gifts of freedom and deliverance for the distressed as well as for the brilliant and give them health and material well being.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the enlightened persons do is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened person! where there is a worker for an afflicted man desiring happiness and service for his body and praising that act of service, let us also enjoy happiness constantly taking refuge in you, who are the wisest sage among the sages, whom all wise men delight, you who are like the sun, the slayer of the cloud of ignorance.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons become delighted, who serve the best absolutely truthful enlightened men and having acquired knowledge from them, impart that (knowledge) to others.

    Foot Notes

    (अहिघ्ने) योऽहिं हन्ति तस्मै सूर्य्याय अहिरिति मेघनाम (NG 1,10) = For the sun who slays the cloud. (वरिवः) परिचरणम् (NG 1,10 ) वरिवा इतिधननाम । अत्रधन द्वारा परिचरणस्य सेवा भाव: । = Service.

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