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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 18/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    तन्नः॑ प्र॒त्नं स॒ख्यम॑स्तु यु॒ष्मे इ॒त्था वद॑द्भिर्व॒लमङ्गि॑रोभिः। हन्न॑च्युतच्युद्दस्मे॒षय॑न्तमृ॒णोः पुरो॒ वि दुरो॑ अस्य॒ विश्वाः॑ ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । नः॒ । प्र॒त्नम् । स॒ख्यम् । अ॒स्तु॒ । यु॒ष्मे इति॑ । इ॒त्था । वद॑त्ऽभिः । व॒लम् । अङ्गि॑रःऽभिः । हन् । अ॒च्यु॒त॒ऽच्यु॒त् । द॒स्म॒ । इ॒षय॑न्तम् । ऋ॒णोः । पुरः॑ । वि । दुरः॑ । अ॒स्य॒ । विश्वाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तन्नः प्रत्नं सख्यमस्तु युष्मे इत्था वदद्भिर्वलमङ्गिरोभिः। हन्नच्युतच्युद्दस्मेषयन्तमृणोः पुरो वि दुरो अस्य विश्वाः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। नः। प्रत्नम्। सख्यम्। अस्तु। युष्मे इति। इत्था। वदत्ऽभिः। वलम्। अङ्गिरःऽभिः। हन्। अच्युतऽच्युत्। दस्म। इषयन्तम्। ऋणोः। पुरः। वि। दुरः। अस्य। विश्वाः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 18; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे न्यायकारिणो राजादयो जना युष्माभिः सह नोऽस्माकं यथा यत्प्रत्नं सख्यमस्त्वित्था युष्मे वदद्भिः सहास्माकं सख्यमस्तु। यथाऽङ्गिरोभिस्सहाऽच्युतच्युत्सूर्य्यो वलं हंस्तथा हे दस्मेषयन्तं त्वमृणोर्यथास्य जगतो दुरः सविता प्रकाशयति तथा त्वं विश्वाः पुरो वृणोः ॥५॥

    पदार्थः

    (तत्) (नः) अस्माकम् (प्रत्नम्) पुरातनम् (सख्यम्) सखीनां कर्म्म (अस्तु) (युष्मे) युष्माकम् (इत्था) अस्मादिव (वदद्भिः) (बलम्) मेघम्। बल इति मेघनाम। (निघं०१.१०) (अङ्गिरोभिः) वायुभिः (हन्) हन्ति (अच्युतच्युत्) योऽच्युतमचलन्तं च्यावयति (दस्म) दुःखोपक्षयितः (इषयन्तम्) प्राप्नुवन्तं गच्छन्तं वा (ऋणोः) प्रसाध्नुयाः (पुरः) (वि) (दुरः) द्वाराणि (अस्य) जगतः (विश्वाः) सर्वाः ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्य्यावच्छक्यं तावदुत्तमैः सह मित्रतैव कार्य्या, सा कदाचिन्न नश्येदेवं प्रयतितव्यं यथा च सूर्य्यः सर्वं प्रकाशयति तथा राजा न्यायेन सर्व राज्यं प्रकाशयेत् ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को परस्पर कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे न्यायकारी राजा आदि जनो ! आप लोगों के साथ (नः) हम लोगों की जैसे (तत्) वह (प्रत्नम्) प्राचीन (सख्यम्) मित्रता (अस्तु) हो (इत्था) इससे जैसे (युष्मे) आप लोगों के (वदद्भिः) कहते हुओं के साथ हम लोगों की मित्रता हो और जैसे (अङ्गिरोभिः) पवनों के साथ (अच्युतच्युत्) नहीं चञ्चल अर्थात् स्थिर को चञ्चल करनेवाला सूर्य्य (वलम्) मेघ का (हन्) नाश करता है, वैसे हे (दस्म) दुःख के नाश करनेवाले (इषयन्तम्) प्राप्त हुए वा जाते हुए को आप (ऋणोः) सिद्ध करिये और जैसे (अस्य) इस जगत् के (दुरः) द्वारों को सूर्य्य प्रकाशित करता है, वैसे आप (विश्वाः) सम्पूर्ण (पुरः) नगरियों को (वि) विशेष करके सिद्ध करिये ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि यथाशक्ति उत्तमों के साथ मित्रता ही करें, वह कभी नष्ट न होवे, ऐसा प्रयत्न करें और जैसे सूर्य्य सब को प्रकाशित करता है, वैसे राजा न्याय से सम्पूर्ण राज्य को प्रकाशित करे ॥५॥

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    विषय

    उसका कार्य शत्रु का नाश ।

    भावार्थ

    हे इन्द्र ! राजन् ! ( नः ) हमारा ( युष्मे ) तुम्हारे साथ ( प्रत्नं सख्यम् ) सदातन से चला आया मैत्रीभाव ( अस्तु ) बना रहे । ( इत्था ) इस प्रकार ( वदद्भिः ) प्रतिज्ञापूर्वक सत्य वचन बोलते हुए ( अंगिरोभिः ) तेजस्वी पुरुषों की सहायता से तू ( वलम् ) नगर घेरने वाले ( इषन्तं ) सैन्य सञ्चालित करते हुए शत्रु को-मेघ को सूर्य के समान ( हन् ) नाश करे । ( अस्य ) नाश करने हारे ! उसके तू (पुरः वि ऋणोः) नगरों का नाश कर और (विश्वाः दुरः वि ऋणः) अपने समस्त शत्रुवारक सेनाओं को विविध दिशाओं में भेज, वा ( अस्य विश्वाः पुरः वि ऋणोः) इसके दूर के समस्त द्वारों को तोड़ डाल । इति चतुर्थी वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ९, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ८, ११, १३ त्रिष्टुप् । ७, १० विराट् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक त्रिष्टुप् । ३, १५ भुरिक् पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ ब्राह्म्युष्णिक्॥

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    विषय

    प्रत्नं सख्यम्

    पदार्थ

    [१] 'जीव और प्रभु' की मित्रता अनादिकाल से चली आ रही है। जीव अपने मित्र से कहता है कि '(न:) = हमारी (युष्मे) = आपके साथ (तत्) = वह (प्रत्नम्) = सनातन (सख्यम्) = मित्रता (अस्तु) = हो, बनी रहे । हम आपकी मित्रता से दूर न हों।' (इत्था) = इस प्रकार (वदद्भिः) = कहते हुए (अंगिरोभिः) = इन गतिशील पुरुषों के साथ आप वलम् [veil] ज्ञान पर आवरणभूत इस वासना को हन् विनष्ट करते हैं। [२] हे (अच्युतच्युत्) अविचलित दृढ़ भी शत्रुओं को नष्ट करनेवाले, (दस्म) = दर्शनीय व दुःख विनाशक प्रभो ! (इषयन्तम्) = हमारे पर आक्रमण करनेवाले, अस्त्रों का प्रहार करनेवाले, इस बल को (ऋणोः) = आप दूर करते हैं। (अस्य) = इस बल के (विश्वाः) = सब (पुरः) = पुरियों को तथा (दुरः) = द्वारों को (वि) [ ऋणोः ] = हमारे से वियुक्त करते हैं। प्रभु ही इस बल का विनाश करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- जीवन अपने सनातन सखा का स्मरण करता है तो वे प्रभु अपने इन उपासकों के साथ ज्ञान की आवरणभूत वासना का विनाश करते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी यथाशक्ती उत्तम लोकांबरोबर मैत्री करावी. ती कधी नष्ट होणार नाही असा प्रयत्न करावा. जसा सूर्य सर्वांना प्रकाशित करतो तसे राजाने न्यायाने संपूर्ण राज्य चालवावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That age-old friendship of ours with you may, we pray, be firmly established in you and remain thus with the vibrant celebrants too who speak this same way in praise of you, and just as the sun breaks the cloud and opens the flood gates of rain showers, so may you, O lord imperishable and generous, shaker of the otherwise unshaken, destroy the darkness of evil, inspire and advance the dynamic leaders, and open all the gates of the human cities on the world highways.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men deal with one another is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O just king and officers of the state ! let there be our ancient bond of friendship with you. Let there be our friendship with those persons also, who say like this. As the sun who is firm and smites the cloud with the help of the winds, in the same manner, o destroyer of miseries! accomplish the works of the person who comes to you. As the sun illumines the doors of this world, so you should open all the cities (of the state. )

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always have friendship with good people as far as it is possible to do. Then they should endeavor to see that this friendship is not lost. As the sun illuminates all, so the king should illuminate the whole state with justice.

    Foot Notes

    (अङ्गिरोभिः) वायुभिः । ये वै देवानामङ्गिरसस्ते ब्राह्मणस्य प्रत्येनसः अग्निर्वायुवीग बृहस्पतिः (काष्ठक संहिता 8, 4) अक्ष वायोग्रहणाम् । = With winds. ( बलम् ) मेघम् । बल इति मेघनाम (NG 1,10) =Cloud. (इषयन्तम्) प्राप्नुवन्तम् गच्छन्तं वा इष गतौ (दिवा०) गतोत्रिष्वर्थेषु गति प्राप्त्यर्थग्रहणम् । ऋणु-गतौ (तमा०)। = Going or approaching.

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