ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 18/ मन्त्र 12
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र तु॑विद्यु॒म्नस्य॒ स्थवि॑रस्य॒ घृष्वे॑र्दि॒वो र॑रप्शे महि॒मा पृ॑थि॒व्याः। नास्य॒ शत्रु॒र्न प्र॑ति॒मान॑मस्ति॒ न प्र॑ति॒ष्ठिः पु॑रुमा॒यस्य॒ सह्योः॑ ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठप्र । तु॒वि॒ऽद्यु॒म्नस्य॑ । स्थवि॑रस्य । घृष्वेः॑ । दि॒वः । र॒र॒प्शे॒ । म॒हि॒मा । पृ॒थि॒व्याः । न । अ॒स्य॒ । शत्रुः॑ । न । प्र॒ति॒ऽमान॑म् । अ॒स्ति॒ । न । प्र॒ति॒ऽस्थिः । पु॒रु॒ऽमा॒यस्य॑ । सह्योः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र तुविद्युम्नस्य स्थविरस्य घृष्वेर्दिवो ररप्शे महिमा पृथिव्याः। नास्य शत्रुर्न प्रतिमानमस्ति न प्रतिष्ठिः पुरुमायस्य सह्योः ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठप्र। तुविऽद्युम्नस्य। स्थविरस्य। घृष्वेः। दिवः। ररप्शे। महिमा। पृथिव्याः। न। अस्य। शत्रुः। न। प्रतिऽमानम्। अस्ति। न। प्रतिऽस्थिः। पुरुऽमायस्य। सह्योः ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 18; मन्त्र » 12
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः कोऽजातशत्रुर्भवतीत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यस्य तुविद्युम्नस्य स्थविरस्य घृष्वेर्दिवः पुरुमायस्य सह्योर्महिमा पृथिव्याः प्र ररप्शेऽस्य न शत्रुर्न प्रतिमानं न प्रतिष्ठिश्चास्ति ॥१२॥
पदार्थः
(प्र) (तुविद्युम्नस्य) बहुप्रशंसाधनस्य (स्थविरस्य) विद्यया वयसा च वृद्धस्य (घृष्वेः) घर्षकस्य (दिवः) कमनीयस्य (ररप्शे) अतिरिणक्ति (महिमा) (पृथिव्याः) भूमेः (न) (अस्य) (शत्रुः) (न) (प्रतिमानम्) परिमाणं सादृश्ये वा (अस्ति) (न) (प्रतिष्ठिः) प्रतिष्ठितः प्रतिष्ठावान् (पुरुमायस्य) बहुशुभकर्मप्रज्ञस्य (सह्योः) सहनशीलस्य ॥१२॥
भावार्थः
ये विद्यावृद्धा अमितप्रशंसामहिमानः सत्यं कामयमाना बहुप्रज्ञाः शमदमादिगुणान्विताः स्युस्तेषां कोऽपि शत्रुः सदृशः प्रतिष्ठितो वा न जायते ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन अजातशत्रुवाला होता है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जिस (तुविद्युम्नस्य) बहुत प्रशंसारूप धन से युक्त (स्थविरस्य) विद्या और अवस्था से वृद्ध (घृष्वेः) दुष्टों के घिसनेवाले (दिवः) सुन्दर (पुरुमायस्य) बहुत श्रेष्ठ कर्म्मों में बुद्धि जिसकी उस (सह्योः) सहनशील का (महिमा) महत्त्व (पृथिव्याः) भूमि से (प्र, ररप्शे) अलग फैलता है (अस्य) इसका (न) न (शत्रुः) वैरी (न) न (प्रतिमानम्) मान वा सादृश्य और (न) न (प्रतिष्ठिः) प्रतिष्ठित (अस्ति) है ॥१२॥
भावार्थ
जो विद्या में वृद्ध, अमित प्रशंसा और महिमावाले, सत्य की कामना करते हुए, बहुत बुद्धिमान् और शम, दम आदि गुणों से युक्त होवें, उनका कोई भी न शत्रु, न बराबर और न उनसे अधिक प्रतिष्ठित होता है ॥१२॥
विषय
अद्वितीय बलशाली, प्रभु और राजा का वर्णन।
भावार्थ
( तुवि-द्युम्नस्य ) बहुत ऐश्वर्यवान्, ( स्थविरस्य ) स्थिर, दीर्घजीवी, ( घृष्वेः ) शत्रुओं का घर्षण करने, उनसे टक्कर लेकर उनको निर्बल कर देने वाले, ( पुरु-मायस्य ) बहुत बुद्धि वाले, चतुर, (सह्योः) सहनशील पुरुष का ( महिमा ) महान् सामर्थ्य ( दिवः ररप्शे ) इस महान् आकाश, तेजस्वी सूर्य से भी बढ़ जाता है, और ( पृथिव्याः प्र ररप्शे ) पृथिवी से भी अधिक होता है । ( अस्य शत्रुः न अस्ति ) उसका कोई शत्रु नहीं होता । ( नः प्रति-मानम् अस्ति ) न उसका कोई प्रति द्वन्द्वी, उसके समान, उसका मुकाबला करने वाला ही होता है। और (न प्रति-ष्टिः ) न उसके मुक़ाबले पर खड़ा होने वाला होता है वा न उसका कोई आश्रय होता है, प्रत्युत वही सबका आश्रय होता है । ( २ ) परमेश्वर तेजःस्वरूप, ऐश्वर्यवान् होने से ‘तुविद्युम्न है, सनातन कूटस्थ होने से ‘स्थविर’, कालक्रम से सब पदार्थों के घर्षण वा संहार करने से ‘घृष्वि’ और जीवों को उपदेश करने, बनाने और बहुप्रज्ञ होने से ‘पुरुमाय’ और बलशाली होने से ‘सह्य’ है । उसकी महिमा आकाश, सूर्य, पृथ्वी आदि से कहीं महान् है । उसका न कोई शत्रु, न प्रतिमा, न माप, और न आश्रय है वही सबका आश्रय है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ९, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ८, ११, १३ त्रिष्टुप् । ७, १० विराट् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक त्रिष्टुप् । ३, १५ भुरिक् पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ ब्राह्म्युष्णिक्॥
विषय
निराधार व सर्वाधार
पदार्थ
[१] (तुविद्युम्नस्य) = उस महान् ज्ञान की ज्योतिवाले, (स्थविरस्य) = प्रवृद्ध, (घृष्वेः) = शत्रुओं का घर्षण करनेवाले प्रभु की (महिमा) = महत्त्व (दिवः) = द्युलोक के द्वारा तथा (पृथिव्याः) = पृथिवी से (ररप्शे) = प्रकर्षेण गायी जा रही है। 'यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसया सहाहुः'। पृथिवी से उत्पन्न होनेवाली वनस्पतियों में तथा पृथिवीस्थ पर्वतों, नदियों व वनों में तथा आकाश के तारों व उमड़ते हुए बादलों में प्रभु की महिमा किसे नहीं दिखती ? [२] (यस्य) = इस महान् प्रभु का (शत्रुः न अस्ति) = शातयिता [= नष्ट करनेवाला] कोई नहीं है, (न प्रतिमानं अस्ति) = इसका कोई प्रतिनिधि भी नहीं हो सकता। इस (पुरुमायस्य) = अनन्त प्रज्ञानवाले, (सह्योः) = शत्रुओं के अभिभावक का (न प्रतिष्ठिः) = कोई और आधार देनेवाला नहीं है, ये प्रभु ही सर्वाधार हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- वे प्रभु महान् ज्ञान की ज्योतिवाले प्रवृद्ध, शत्रुओं के कुचलनेवाले, अनन्त महिमावाले व अनुपम व स्वयं निराधार होते हुए सर्वाधार हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्यावृद्ध, अत्यंत प्रशंसा व महिमायुक्त, सत्यकामी अत्यंत बुद्धिमान व शम दम इत्यादी गुणांनी युक्त असतात त्यांना कोणीही शत्रू नसतो किंवा त्यांची बरोबरी करणारा नसतो व त्यांच्यापेक्षा अधिक प्रतिष्ठावानही नसतो. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The greatness and glory of this lord of abundance, most ancient and venerable, self-refulgent tamer of evil, transcends the bounds of the earth. There is no enemy, no equal measure or rival, nor any defined seat of stability of this self-sufficient, omnipotent and forbearing lord.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who becomes a man devoid of enemies is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! of the person who has abundant wealth and glory, who is old in knowledge and age, is subduer of the wicked, charming, endowed with much wisdom and good actions, and forbearing the greatness is being manifested from the earth and it surpasses all. He has no enemy, no counterpart or equal and none who is equally glorious of renowned.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who are old in knowledge and age, are renowned and glorious, desirous of truth. endowed with abundant wisdom, peace, self-control and other virtues have no enemy, no equal and none equally glorious.
Foot Notes
(धृष्वे:) दुष्टानः घर्षकस्य। = Of the subduer of the wicked. (पुरुमायस्य) बहुशुभकर्म प्रशस्य । मायेति प्रज्ञानाम् (NG 3,9) उत्तमा प्रज्ञा शुभकर्म सम्बन्धिनी भवति । = Endowed with abundant wisdom and noble deeds. (दिवः) कमनीयस्य । दिवु धातो: क्रीडा विजिगीषा कान्ति गतिषु इत्याधने-कार्थेष्वत्न कान्त्यर्थ ग्रहणम् कान्ति-कामना । = Of the charming or most desirable.
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