ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 18/ मन्त्र 13
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र तत्ते॑ अ॒द्या कर॑णं कृ॒तं भू॒त्कुत्सं॒ यदा॒युम॑तिथि॒ग्वम॑स्मै। पु॒रू स॒हस्रा॒ नि शि॑शा अ॒भि क्षामुत्तूर्व॑याणं धृष॒ता नि॑नेथ ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठप्र । तत् । ते॒ । अ॒द्य । कर॑णम् । कृ॒तम् । भू॒त् । कुत्स॑म् । यत् । आ॒युम् । अ॒ति॒थि॒ऽग्वम् । अ॒स्मै॒ । पु॒रु । स॒हस्रा॑ । नि । शि॒शाः॒ । अ॒भि । क्षाम् । उत् । तूर्व॑याणम् । धृ॒ष॒ता । नि॒ने॒थ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र तत्ते अद्या करणं कृतं भूत्कुत्सं यदायुमतिथिग्वमस्मै। पुरू सहस्रा नि शिशा अभि क्षामुत्तूर्वयाणं धृषता निनेथ ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठप्र। तत्। ते। अद्य। करणम्। कृतम्। भूत्। कुत्सम्। यत्। आयुम्। अतिथिऽग्वम्। अस्मै। पुरु। सहस्रा। नि। शिशाः। अभि। क्षाम्। उत्। तूर्वयाणम्। धृषता। निनेथ ॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 18; मन्त्र » 13
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यत्कुत्समतिथिग्वमायुमस्मै त्वमुन्निनेथ येन धृषता तूर्वयाणं क्षां पुरू सहस्राऽभि नि शिशास्तत्तेऽद्या करणं कृतं प्र भूत् ॥१३॥
पदार्थः
(प्र) (तत्) (ते) तव (अद्या) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (करणम्) साधनम् (कृतम्) (भूत्) भवेत् (कुत्सम्) वज्रमिव दृढम् (यत्) (आयुम्) जीवनम् (अतिथिग्वम्) योऽतिथीन् गच्छति तम् (अस्मै) (पुरू) बहूनि (सहस्रा) सहस्राणि (नि) (शिशाः) शिक्षय (अभि) (क्षाम्) पृथिवीम् (उत्) (तूर्वयाणम्) तूर्वं शीघ्रगामि यानं यस्यास्ताम् (धृषता) दृढत्वेन (निनेथ) नय ॥१३॥
भावार्थः
यत्र राजादयो जना दीर्घायुषोऽतिथिसेवकाः पक्षपातं विहाय प्रजापालकाः सन्ति तत्र सर्वाणि कार्य्याणि सिद्धानि जायन्ते ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! (यत्) जिस (कुत्सम्) वज्र के सदृश दृढ़ (अतिथिग्वम्) अतिथियों को प्राप्त होनेवाले (आयुम्) जीवन को (अस्मै) इसके लिये आप (उत्) (निनेथ) उन्नति प्राप्त करिये जिस (धृषता) दृढ़त्व से (तूर्वयाणम्) शीघ्रगामी वाहन जिसका उस (क्षाम्) पृथिवी को (पुरू) बहुत (सहस्रा) हजारों की (अभि) चारों ओर से (नि, शिशाः) शिक्षा दीजिये (तत्) वह (ते) आप का (अद्या) आज (करणम्) साधन (कृतम्) किया गया (प्र, भूत्) होवे ॥१३॥
भावार्थ
जहाँ राजा आदि जन अधिक अवस्थावाले अतिथि जनों के सेवक, पक्षपात का त्याग करके प्रजा के पालक हैं, वहाँ सम्पूर्ण कार्य्य सिद्ध होते हैं ॥१३॥
विषय
राजा को उपदेश ।
भावार्थ
हे राजन् ! ( यत् ) जो तू (अस्मै ) इस राष्ट्र के हित के लिये ( पुरु ) बहुत से ( कुत्सं ) शस्त्र समूह को ( नि शिशाः ) शासन कर और ( पुरु आयुम् नि शिशा: ) बहुत से मनुष्यों को अपने अधीन शासन कर और ( पुरु अतिथिग्वम् नि शिशा: ) बहुत से अतिथियों को प्राप्त होने वाले सत्कारयोग्य धन प्रदान कर ( पुरु सहस्त्रा नि शिशाः ) बहुत से हज़ारों धनों, बलों को भी शासन करता, और ( धृषता ) शत्रु को पराजय करने वाले बल से ( तूर्व-याणं ) शीघ्र यान वाले (क्षाम् ) राष्ट्र निवासी प्रजाजन को ( अभि उत् निनेथ ) ऊपर उठाता, उन्नति की ओर ले जाता, वा उत्तम पद प्रदान करता है (अद्य ) आज भी ( ते ) तेरा (तत्) यह ( करणं ) करना वा ( कृतम् ) किया हुआ कर्म भी ( प्र भूत ) उत्तम सामर्थ्य को बढ़ाने वाला है । ( २ ) परमेश्वर का यह महान् प्रभुता का कार्य है कि वह इस जीव को ज्ञानवज्र, दीर्घ जीवन, और इन्द्रिय देता है । सहस्रों सुख देता है और उसे शीघ्रगामिनी भूमि, नरदेह देता, वा उसको उत्तम पद की ओर ले जाता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ९, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ८, ११, १३ त्रिष्टुप् । ७, १० विराट् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक त्रिष्टुप् । ३, १५ भुरिक् पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ ब्राह्म्युष्णिक्॥
विषय
'कुत्स आयु अतिथिग्व तूर्वयाण'
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (अद्या) = आज भी (ते) = आपका (तत्) = वह (कृतं करणम्) = किया गया काम (प्रभूत्) = प्रकाशित हो रहा है (यत्) = कि आप (कुत्सम्) = [कुथ हिंसायाम्] वासनाओं का संहार करनेवाले को, (आयुम्) = [इ गतौ] गतिशील पुरुष को तथा (अतिथिग्वम्) = उस महान् अतिथि प्रभु की ओर चलनेवाले को अथवा अतिथियों का स्वागत करनेवाले को रक्षित करते हो ['ररक्षिथ' क्रियापद अध्याहृत है] और (अस्मै) = इसके लिए पुरु (सहस्रा) = बहुत हजारों धन (निशिशाः)[अदरा: ] = देते हैं। आप इन धनों को (क्षां अभि) = पृथिवी का, इस पार्थिव शरीर का लक्ष्य करके देते हैं। पार्थिव शरीर का रक्षण इन पार्थिव धनों से ही तो हो पायेगा। [२] आप (तूर्वयाणम्) = अपने कर्त्तव्य कर्मों में त्वरित गतिवाले इस ज्ञान-भक्त [=दिवोदास] पुरुष को (धृषता) = शत्रु धर्षक बल के द्वारा (उनिनेथ) = इन धनों में आसक्ति से ऊपर उठाते हो । प्रभु आवश्यक धन देते हैं और साथ ही इन धनों में न फँसने की शक्ति भी प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'वासनाओं का संहार करनेवाले [कुत्स], गतिशील [आयु], अतिथि- सेवक [अतिथिग्व]' बनकर प्रभु से रक्षणीय बनें । प्रभु से धनों को प्राप्त करें और शीघ्रता से कर्त्तव्य कर्मों में तत्पर रहते हुए उन धनों में आसक्त न हों।
मराठी (1)
भावार्थ
जेथे राजा इत्यादी लोक दीर्घायुषी, अतिथींचे सेवक, भेदभाव न करता प्रजेचे पालन करतात तेथे संपूर्ण कार्य परिपूर्ण होते. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Surely great are your acts, activities and ways of earthly accomplishment today, as you bring a thousand gifts of wealth, knowledge and competence to this mighty, vibrating and hospitable humanity and raise the earth to the heights of speed and progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king do is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king! this is a great thing that you do, that you give a life to the person who is hospitable to his guests, a life firm like the thunderbolt. Train firmly thousands of people on earth which has very quick going vehicles.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Where kings and officers of the State are long lived, hospitable to the guests and impartial protectors of the people, all works are accomplished.
Translator's Notes
It is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take katsa, Atithigva and Aya as proper nouns denoting the names of certain persons, as it is against the fundamental principles of the Vedic Terminology as pointed out before.
Foot Notes
(कुत्सम्) वज्रमिव ठम् । कुत्स इति वज्रनाम (NG 2,3)1=Firm like the thunderbolt. (अतिथिग्वम्) योऽतिथीन् गच्छति तम् । = Hospitable to the guests. (क्षाम् ) पृथिवीम् । क्षा इति पृथिवीनाम (NG 1,1) = Earth. ( तूर्वयाणम्) तूर्वे शीघ्रगामि यानं यास्यास्ताम । सूरौ-गति- वाण हिंसनयो: ( दिवा० ) अत्र गतित्वरणार्थग्रहणाम् । = Which (earth) has very quick going vehicles.
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