ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 18/ मन्त्र 11
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ स॒हस्रं॑ प॒थिभि॑रिन्द्र रा॒या तुवि॑द्युम्न तुवि॒वाजे॑भिर॒र्वाक्। या॒हि सू॑नो सहसो॒ यस्य॒ नू चि॒ददे॑व॒ ईशे॑ पुरुहूत॒ योतोः॑ ॥११॥
स्वर सहित पद पाठआ । स॒हस्र॑म् । प॒थिऽभिः॑ । इ॒न्द्र॒ । रा॒या । तुवि॑ऽद्युम्न । तु॒वि॒ऽवाजे॑भिः । अ॒र्वाक् । या॒हि । सू॒नो॒ इति॑ । स॒ह॒सः॒ । यस्य॑ । नु । चि॒त् । अदे॑वः । ईशे॑ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । योतोः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ सहस्रं पथिभिरिन्द्र राया तुविद्युम्न तुविवाजेभिरर्वाक्। याहि सूनो सहसो यस्य नू चिददेव ईशे पुरुहूत योतोः ॥११॥
स्वर रहित पद पाठआ। सहस्रम्। पथिऽभिः। इन्द्र। राया। तुविऽद्युम्न। तुविऽवाजेभिः। अर्वाक्। याहि। सूनो इति। सहसः। यस्य। नु। चित्। अदेवः। ईशे। पुरुऽहूत। योतोः ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 18; मन्त्र » 11
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजा किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे तुविद्युम्न पुरुहूत सहसः सूनो इन्द्र ! त्वं पथिभी राया तुविवाजेभिस्सहार्वाक् सहस्रमाऽऽयाहि यस्य योतोश्चिददेव ईशे तन्नू प्राप्नुहि ॥११॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (सहस्रम्) असंख्यातम् (पथिभिः) मार्गैः (इन्द्र) (राया) धनेन (तुविद्युम्न) बहुप्रशंस (तुविवाजेभिः) बहुवेगैर्बहुसङ्ग्रामैर्वा (अर्वाक्) पश्चात् (याहि) गच्छ (सूनो) अपत्य (सहसः) बलवतः (यस्य) (नू) सद्यः (चित्) अपि (अदेवः) अविद्वान् (ईशे) ईष्टे (पुरुहूत) बहुभिः कृताह्वान (योतोः) मिश्रिताऽमिश्रितकर्त्तुः ॥११॥
भावार्थः
हे राजँस्त्वं विद्याविनयमार्गेण प्रजाः पितृवत्पालयित्वा यशस्वी भूत्वा सत्याऽसत्ययोर्यथावन्निर्णयं कुरु ॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (तुविद्युम्न) बहुत प्रशंसा से युक्त (पुरुहूत) बहुतों से आह्वान किये गये (सहसः) बलवान् के (सूनो) पुत्र (इन्द्र) दुष्टता के नाशक राजन् ! आप (पथिभिः) मार्गों (राया) धन और (तुविवाजेभिः) बहुत वेग वा बहुत संग्रामों के साथ (अर्वाक्) पीछे से (सहस्रम्) अनेकों को (आ) सब ओर से (याहि) प्राप्त हूजिये और (यस्य) जिस (योतोः) मिश्रित और अमिश्रित करनेवाले का (चित्) भी (अदेवः) विद्वान् से भिन्न जन (ईशे) इच्छा करता है, उसको (नू) शीघ्र प्राप्त होओ ॥११॥
भावार्थ
हे राजन् ! आप विद्या और विनय के मार्ग से प्रजाओं का पिता के सदृश पालन करके यशस्वी होकर सत्य और असत्य का यथावत् निर्णय करिये ॥११॥
विषय
दुष्टों को धनापहार का दण्ड।
भावार्थ
हे ( सहसः सूनो ) बल के सञ्चालक ! और बलवान् पिता के पुत्र ! वा बल पराक्रम के द्वारा स्वयं उत्पन्न ! हे ( पुरुहूत ) बहुतों में प्रशंसित ! ( यस्य ) जिस (योतोः ) प्राप्त होने योग्य धन का (अदेव:) अदानशील पुरुष ( ईशे ) स्वामी बना हुआ है उस धन को तू ( आयाहि ) अवश्य प्राप्त कर और हे ( इन्द्र ) दुष्टनाशक ! हे ( तुवि-द्युम्न ) बहुत से ऐश्वर्यों के स्वामिन् ! तू ( तुवि-वाकेभिः ) बहुत से वेगवान् अश्वादि साधनों से ( पथिभिः ) उत्तम मार्गों से और ( राया ) ऐश्वर्य के बल से ( सहस्रं अर्वाक् आ याहि ) हज़ारों प्रकार के धनों और ऐश्वर्यों को साक्षात् प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ९, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ८, ११, १३ त्रिष्टुप् । ७, १० विराट् त्रिष्टुप् । १२ भुरिक त्रिष्टुप् । ३, १५ भुरिक् पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ ब्राह्म्युष्णिक्॥
विषय
ऐश्वर्य-शक्ति
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (सहस्रं पथिभिः) = हजारों मार्गों से (राया) = ऐश्वर्य के साथ (आयाहि) = हमें प्राप्त होइये । हम आपकी कृपा से विविध मार्गों से धनों के कमानेवाले हों। हे (तुविद्युम्न) = महान् ज्योतिवाले प्रभो! आप (तुविवाजेभिः) = महान् शक्तियों के साथ (अर्वाक् आयाहि) = हमारे अभिमुख प्राप्त होइये। ज्ञान के द्वारा ही शक्ति पवित्र व सुरक्षित बनी रहती है। [२] हे (सहसः सूनो) = शक्ति के पुञ्ज (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभो! हमें उस ऐश्वर्य और शक्ति को दीजिए, (यस्य) = जिसके (योतो:) = पृथक् करने के लिये (अदेवः) = कोई भी आसुरभाव व आसुरीवृत्तिवाला पुरुष (नू चित्) = नहीं ही (ईशे) = समर्थ होता है। ['नू चित्' इति निषेधार्थे] ।
भावार्थ
भावार्थ– प्रभु हमें ऐश्वर्य व शक्ति को प्राप्त कराएँ । कोई भी आसुरभाव हमारे इस ऐश्वर्य व शक्ति के विनाश का कारण न बन जाए।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा! तू विद्या व विनयाने प्रजेचे पित्याप्रमाणे पालन करून यशस्वी बनून सत्यासत्याचा यथायोग्य निर्णय कर. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, ruler of the world, lord of abundant wealth, power, honour and excellence, child of omnipotence, universally invoked and adored, who join and reshape the uniform and various powers of nature and humanity, come here to a thousand devotees by a thousand ways with wealth of a thousand forms of food, energy and advancement, lord whose favour and friendship even the semipious desire to have.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king do is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O glorious king invoked by many, son of the mighty father! come here by good paths along with wealth, with quickness, to thousands of people. Come to him also who being a doer of both good and bad acts has some unenlightened person as his master or guide. (Bring him to the right path).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! protect or nourish your subjects like their father, with the path of knowledge and humility, be glorious and decide rightly distinguishing between truth and untruth.
Foot Notes
(तुविद्युम्न) बहुप्रशंस । तुवि इति बहुनाम (NG 3, 1 ) दयुमनं (NKT 5,1,5) = Glorious, have good reputation. (योतो:) मिश्रिताऽमिश्रितकर्त्तु: यु-मिश्रणमिश्रणयोः (अदा०)। = Doer of good and bad-mixed acts.
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