ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 10
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अस्ति॒ हि व॑: सजा॒त्यं॑ रिशादसो॒ देवा॑सो॒ अस्त्याप्य॑म् । प्र ण॒: पूर्व॑स्मै सुवि॒ताय॑ वोचत म॒क्षू सु॒म्नाय॒ नव्य॑से ॥
स्वर सहित पद पाठअस्ति॑ । हि । वः॒ । स॒जा॒त्य॑म् । रि॒शा॒द॒सः॒ । देवा॑सः । अस्ति॑ । आप्य॑म् । प्र । नः॒ । पूर्व॑स्मै । सु॒वि॒ताय॑ । वो॒च॒त॒ । म॒क्षु । सु॒म्नाय॑ । नव्य॑से ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्ति हि व: सजात्यं रिशादसो देवासो अस्त्याप्यम् । प्र ण: पूर्वस्मै सुविताय वोचत मक्षू सुम्नाय नव्यसे ॥
स्वर रहित पद पाठअस्ति । हि । वः । सजात्यम् । रिशादसः । देवासः । अस्ति । आप्यम् । प्र । नः । पूर्वस्मै । सुविताय । वोचत । मक्षु । सुम्नाय । नव्यसे ॥ ८.२७.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O divinities of nature and humanity, destroyers of negativities and enmities, there is a kinship among yourselves and between you and ourselves. There is a natural affinity too among yourselves and between you and ourselves, a friendship and alliance. Pray enlighten us about our ancient welfare and prosperity and lead us as ever to a new phase of prosperity and well being, the latest way.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या प्राचीनकालीन वस्तू चांगल्या व लाभदायक असतील त्यांचे रक्षण करावे. ज्या नवनवीन गोष्टी असतील त्यांचे ग्रहण करणे मनुष्य धर्म आहे. ॥१०॥
संस्कृत (1)
विषयः
प्राचीननवीनोभयग्रहणायोपदिशति ।
पदार्थः
हे रिशादसः=अस्माकं रिशतां हिंसतां विघ्नानामसितारः प्रक्षेप्तारः । देवासः=देवा विद्वांसः । वः=युष्माकम् । अस्माभिः सह । सजात्यम्=समानजातित्वम् । अस्ति+हि=विद्यत एव । आप्यम्=बन्धुत्वमप्यस्ति । आपिर्बन्धुस्तस्य भाव आप्यम् । हे देवास्तस्माद्धेतोर्यूयम् । पूर्वस्मै=पुराणाय । सुविताय= परमैश्वर्य्याय । नः=अस्मान् । प्रवोचत=प्रकर्षेण नयत । अपि च । नव्यसे=नवीयसे=नवतराय । सुम्नाय=सुखाय च । मक्षु=शीघ्रम् । प्रवोचत ॥१० ॥
हिन्दी (3)
विषय
प्राचीन और नवीन दोनों का ग्रहण करे, यह उपदेश इसमें देते हैं ।
पदार्थ
(रिशादसः) हे हमारे निखिल विघ्नविनाशक (देवासः) विद्वानो ! हमारे साथ (वः) आप लोगों का (सजात्यम्+अस्ति+हि) समानजातित्व अवश्य है और (आप्यम्+अस्ति) बन्धुत्व भी है । हे विद्वानो ! इस हेतु (नः) हम लोगों को (पूर्वस्मै) प्राचीन (सुविताय) परमैश्वर्य्य की ओर आप (प्र+वोचत) ले चलें और (नव्यसे) अतिनवीन (सुम्नाय) अभ्युदय की ओर भी (मक्षु) शीघ्र ले चलें ॥१० ॥
भावार्थ
जो वस्तु प्राचीनकाल की अच्छी और लाभकारी हों, उनकी रक्षा करना और जो नूतन-२ विषय प्रचलित हों, उनको ग्रहण करना मनुष्यधर्म है ॥१० ॥
विषय
नाना प्रकार के उत्तम वीर विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( रिशादसः ) हिंसकों को नाश करने हारे ! ( वः ) आप लोगों की ( सजात्यं अस्ति हि) जाति, उद्भव स्थान समान हो। हे (देवासः) विद्वान् मनुष्यो ! (वः आप्यम् अस्ति हि) तुम लोगों की परस्पर बन्धुता भी हो । आप लोग ( मक्षू ) शीघ्र ही ( पूर्वस्मै ) पूर्ण, पूर्व विद्यमान ( सुविताय ) ऐश्वर्य प्राप्त करने तथा उत्तम मार्ग में चलने, सदाचार पालन करने और ( नव्यसे ) नये, उत्तम सुख प्राप्त करने के लिये ( नः प्रवोचत ) हमें अच्छा २ उपदेश किया करें। इति द्वात्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
सुविताय-सुम्नाय
पदार्थ
[१] हे (देवासः) = देवो ! (हि) = निश्चय से (वः) = आपका (सजात्यम्) = समान जातित्व (अस्ति) = है। हे (रिशादस:) = हिंसक 'काम-क्रोध-लोभ' आदि भावों के विनाशक देवो! आपका (आप्यम्) = बन्धुत्व (अस्ति) = है। दिव्य गुण सब एक जाति के हैं और एक दूसरे के साथ सम्बद्ध हैं। एक दिव्य गुण के अपनाने पर दूसरे दिव्य गुण स्वतः उसके साथ खिचे चले आते हैं। [२] हे देवो ! दिव्य वृत्तिवाले पुरुषो! (नः) = हमारे लिये (पूर्वस्मै) = सर्वोत्कृष्ट (सुविताय) = सुवित के लिये [सुष्टु ईयते] अभ्युदय के लिये (प्रवोचत) = मार्ग का उपदेश करो (मक्षू) = शीघ्र (नव्यसे) = नवतर, अतिशयेन स्तुत्य (सुम्नाय) = यज्ञ के लिये उपदेश करो।
भावार्थ
भावार्थ- दिव्यगुणों का परस्पर समान जातित्व व बन्धुत्व है। इन दिव्य गुणों से सम्पन्न पुरुष हमारे लिये अभ्युदय व स्तुत्य यज्ञों का उपदेश करें। इस सुवित व सुम्न के प्राप्त करके हम भी देव बनें।
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