ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 20
यद्वा॑भिपि॒त्वे अ॑सुरा ऋ॒तं य॒ते छ॒र्दिर्ये॒म वि दा॒शुषे॑ । व॒यं तद्वो॑ वसवो विश्ववेदस॒ उप॑ स्थेयाम॒ मध्य॒ आ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वा॒ । अ॒भि॒ऽपि॒त्वे । अ॒सु॒राः॒ । ऋ॒तम् । य॒ते । छ॒र्दिः । ये॒म । वि । दा॒शुषे॑ । व॒यम् । तत् । वः॒ । व॒स॒वः॒ । वि॒श्व॒ऽवे॒द॒सः॒ । उप॑ । स्थे॒या॒म॒ । मध्ये॒ । आ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वाभिपित्वे असुरा ऋतं यते छर्दिर्येम वि दाशुषे । वयं तद्वो वसवो विश्ववेदस उप स्थेयाम मध्य आ ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । वा । अभिऽपित्वे । असुराः । ऋतम् । यते । छर्दिः । येम । वि । दाशुषे । वयम् । तत् । वः । वसवः । विश्वऽवेदसः । उप । स्थेयाम । मध्ये । आ ॥ ८.२७.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 20
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
The devotee having offered service in worship of truth and divine law, morning, evening or any time, you bless the man of charity with a peaceful home, then, O harbingers of pranic energy, and commanders of the world’s wealth and givers of peace and shelter, pray may we too abide in your midst close to you under your protection and care.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांबरोबर राहण्याने अनेक प्रकारचे लाभ होतात. आत्मा पवित्र होतो, उदारता येते, बहुज्ञता वाढते व परोपकार करण्याने जन्म सफल होतो. ॥२०॥
संस्कृत (1)
विषयः
विद्वद्गोष्ठीलाभाय प्रार्थना ।
पदार्थः
यद्वा । हे असुराः=“असून् प्राणान् रान्ति ददति ये तेऽसुराः” महाप्राणप्रदातारः ! यूयम् । यदा । अभिपित्वे=सायंकाले । अन्येषु समयेषु वा । ऋतम्+यते=सत्यं गच्छते । “इणः शतरि रूपम्” । दाशुषे=दत्तवते जनाय । छर्दिः=गृहम् । अन्यानि विविधानि वित्तानि च । वियेम=प्रयच्छथ । हे वसवः ! हे विश्ववेदसः ! तत्=तदा । वः=युष्माकं मध्ये । वयम् । आ=समन्तात् । उपस्थेयाम=उपतिष्ठेम ॥२० ॥
हिन्दी (3)
विषय
यह प्रार्थना विद्वानों की गोष्ठी के लाभ के लिये है ।
पदार्थ
(यद्वा) अथवा (असुराः) हे महाबलप्रद सर्वप्रतिनिधियो ! जब आप (अभिपित्वे) सायंकाल अथवा अन्य समयों में अथवा किसी समय में (ऋतम्+यते) सत्यनियम, सत्यव्रत, सत्यबोध आदिकों को प्राप्त और (दाशुषे) यथाशक्ति दानदाता के लिये (छर्दिः) गृह, दारा, पुत्र और बहुविध पदार्थ (वि+येम) देते हैं (वसवः) हे सबके वास देनेवाले (विश्ववेदसः) हे सर्वधनसम्पन्न विद्वानो ! (तत्) तब (वयम्) हम चाहते हैं कि (वः+मध्ये) आप लोगों के मध्य (आ) सब प्रकार से (उपस्थेयाम) उपस्थित होवें, क्योंकि आपके सङ्ग-२ हम भी उदार होवें ॥२० ॥
भावार्थ
विद्वानों के साथ-२ रहने से बहुविध लाभ हैं । आत्मा पवित्र होता, उदारता आती, बहुज्ञता बढ़ती और परोपकार करने से जन्मग्रहण की सफलता होती है ॥२० ॥
विषय
राष्ट्र के प्रति उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( असुरः ) बलवान्, दुष्टों को उखाड़ फेंकने में समर्थ वीर पुरुषो ! प्राणों के दाता वा प्राणों के अभ्यास में लगे विद्वानो ! आप लोग (अपिपित्वे ) प्राप्त होकर ( यत् वा ऋतं वियेम ) जो भी सत्य ज्ञान है उसे हम प्रदान करें और ( यते दाशुषे ) यत्न शील वा शरणागत, दानशील वा सेवक जन को भी ( छर्दिः ) आश्रय और ज्ञान दीप्ति ( वि-येम ) विशेष रूप में प्रदान करें। हे ( वसवः ) विद्वान जनो !! हे ( विश्व-वेदसः ) समस्त धनों और ज्ञानों के स्वामि जनो ! हम लोग भी ( वः ) आप लोगों के ( मध्ये ) बीच में ( तत् छर्दिः ) उस गृह वा शरण में ( उप स्थेयाम ) सदा उपस्थित रहें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
ऋतं यते, दाशुषे
पदार्थ
[१] हे (असुराः) = हमारे जीवनों में प्राणशक्ति का संचार करनेवाले [असु+र] अथवा शत्रुओं को दूर फेंकनेवाले [अस् क्षेपणे] देवो! आप (अभिपित्वे) = हमारे यज्ञों में प्राप्त होने पर (ऋतं यते) = यज्ञों की ओर गतिवाले, (यद्वा) = अथवा (दाशुषे) = दानशील पुरुष के लिये (छर्दिः वियेम) = गृह को देते हो। (वयम्) = हम (वः) = आपके (तद् मध्ये) = उस घर में (उप आ स्थेयाम) = उपासना में स्थित हों। [२] हे देवो! आप (वसवः) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले से और (विश्ववेदसः) = सम्पूर्ण धनों व ज्ञानों को प्राप्त करानेवाले हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने गृह को उन व्यक्तियों का गृह बनायें जो ऋत की ओर चल रहे हैं, यज्ञात्मक जीवन बिता रहे हैं और दानशील हैं। सब देव हमारे निवास को उत्तम बनायेंगे और सम्पूर्ण धनों को प्राप्त करायेंगे।
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