ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 2
आ प॒शुं गा॑सि पृथि॒वीं वन॒स्पती॑नु॒षासा॒ नक्त॒मोष॑धीः । विश्वे॑ च नो वसवो विश्ववेदसो धी॒नां भू॑त प्रावि॒तार॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । प॒शुम् । गा॒सि॒ । पृ॒थि॒वीम् । वन॒स्पती॑न् । उ॒षसा॑ । नक्त॑म् । ओष॑धीः । विश्वे॑ । च॒ । नः॒ । व॒स॒वः॒ । वि॒श्व॒ऽवे॒द॒सः॒ । धी॒नाम् । भू॒त॒ । प्र॒ऽअ॒वि॒तारः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ पशुं गासि पृथिवीं वनस्पतीनुषासा नक्तमोषधीः । विश्वे च नो वसवो विश्ववेदसो धीनां भूत प्रावितार: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । पशुम् । गासि । पृथिवीम् । वनस्पतीन् । उषसा । नक्तम् । ओषधीः । विश्वे । च । नः । वसवः । विश्वऽवेदसः । धीनाम् । भूत । प्रऽअवितारः ॥ ८.२७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O yajaka, you sing of animals, the earth, herbs and trees, day and night. And may all the powers which provide us with shelter and comfort, present all over the world, be the protectors and promoters of our thoughts and actions.
मराठी (1)
भावार्थ
यज्ञात दूध, घृत इत्यादीसाठी पशू, माती, दगड व उखळ इत्यादीचे प्रयोजन असते. या सामग्रीने संपन्न असल्यावर यज्ञ सफल होतो. ॥२॥
संस्कृत (1)
विषयः
यज्ञियवस्तूनि प्रकारान्तरेण दर्शयति ।
पदार्थः
वयम् । पशुं पृथिवीं वनस्पतीन् । उषासा=उषःकालम् । नक्तम् । ओषधीश्च । आगासि=समन्तादागायामः । अतः । हे वसवः=वासयितारः ! विश्ववेदसः=सर्वधनाः सर्वज्ञाना वा । हे विश्वे=सर्वेऽपि देवाः । यूयम् । नोऽस्माकम् । धीनाम्=मतीनां विचाराणां च । प्रावितारः=रक्षका वर्धकाश्च भूत=भवत ॥२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
यज्ञसम्बन्धी वस्तुओं को अन्य प्रकार से दिखलाते हैं ।
पदार्थ
हे देवगणो ! हम उपासकगण (पशुम्) पशुओं (पृथिवीम्) पृथिवी (वनस्पतीन्) वनस्पतियों (उषासा) प्रातःकाल (नक्तम्) रात्रि (ओषधीः) गेहूँ, यव आदि ओषधियों के गुणों का (आगासि) गान और प्रकाश करते हैं । इसलिये (वसवः) हे सबको वास देनेवाले (विश्ववेदसः) हे सर्वधनज्ञानसम्पन्न ! (विश्वे) हे सर्व विद्वानों आप सब (नः) हमारी (धीनाम्) बुद्धियों और विचारों के (प्रावितारः+भूत) रक्षक और वर्धक होवें ॥२ ॥
भावार्थ
यज्ञ में दुग्ध और घृतादि के लिये पशुओं, मृत्तिका, प्रस्तर और ऊखल आदि का भी प्रयोजन होता है । इन सामग्रियों से सम्पन्न होने से यज्ञ सफल होता है ॥२ ॥
विषय
विद्वान् से ज्ञान की याचना।
भावार्थ
हे विद्वन् ! तू ( पशुम् ) पशु को, ( पृथिवीम् ) भूमि को और ( वनस्पतीन् ) बड़े २ वृक्षों को और ( ओषधीः ) अन्न लतादि को ( उषासानक्तम् ) दिन रात, प्रातः सायं ( आ गासि ) प्राप्त किया कर। हे ( विश्व-वेदसः ) सब प्रकार के ज्ञानों को जानने वाले ( वसवः ) राष्ट्र वासी ज्ञानी पुरुषो ! आप लोग ( विश्वे ) सब ( नः धीनां ) हमारी बुद्धियों और सत्कर्मों के ( प्र अवितारः भूत ) उत्तम रीति से रक्षक होकर रहो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
स्थावर जंगम जगत् की अनुकूलता
पदार्थ
[१] हे अग्ने ! आप हमारे जीवनों में (पशुम्) = गौ आदि पशुओं को, (पृथिवीम्) = इस भूमि माता को (वनस्पतीन्) = ज्ञान रश्मियों की रक्षक इन वनस्पतियों को, बुद्धि को कायम रखनेवाली वनस्पतियों को (ओषधीः) = [ओषः सोमः धीयते यासु] अपने अन्दर दोषों के दग्ध करनेवाले सोम [वीर्य] को धारण करनेवाली ओषधियों को (उषासानक्तम्) = दिन-रात आगासि प्राप्त कराते हो व स्तुत करते हो। हम इनके ठीक प्रयोग से जीवन को उज्ज्वल बना पाते हैं। [२] (च) = और हे (विश्ववेदसः) = सम्पूर्ण ज्ञान धनोंवाले (विश्वे वसवः) = सब वसुओं ! जीवन के निवास को उत्तम बनानेवाले ज्ञानियो ! (नः) = हमारी (धीनाम्) = बुद्धियों के आप (प्रावितारः) = प्रकृष्ट रक्षक (भूत) = होवो | आप से दिये जानेवाले ज्ञान से हमारी बुद्धियाँ ठीक बनी रहें।
भावार्थ
भावार्थ- सब पशु, पृथिवी आदि पदार्थ हमारे जीवन को उज्ज्वल बनायें। सब देव ज्ञान द्वारा हमारी बुद्धियों को प्रीणित करनेवाले हों।
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