ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 16
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
प्र स क्षयं॑ तिरते॒ वि म॒हीरिषो॒ यो वो॒ वरा॑य॒ दाश॑ति । प्र प्र॒जाभि॑र्जायते॒ धर्म॑ण॒स्पर्यरि॑ष्ट॒: सर्व॑ एधते ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सः । क्षय॑म् । ति॒र॒ते॒ । वि । म॒हीः । इषः॑ । यः । वः॒ । वरा॑य । दाश॑ति । प्र । प्र॒ऽजाभिः॑ । जा॒य॒ते॒ । धर्म॑णः । परि॑ । अरि॑ष्टः । सर्वः॑ । ए॒ध॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र स क्षयं तिरते वि महीरिषो यो वो वराय दाशति । प्र प्रजाभिर्जायते धर्मणस्पर्यरिष्ट: सर्व एधते ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सः । क्षयम् । तिरते । वि । महीः । इषः । यः । वः । वराय । दाशति । प्र । प्रऽजाभिः । जायते । धर्मणः । परि । अरिष्टः । सर्वः । एधते ॥ ८.२७.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 16
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
He thrives in his home and abounds in plenty of wealth, honour and excellence, who gives in charity in obedience to you, Vishvedevas, for the sake of progress. He rises higher and higher with his progeny and friends in Dharma and, unhurt by sin and violence, grows stronger and higher in life.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! विद्वानांची सेवा करा. विद्येनेच तुमची सर्व प्रकारे उन्नती होईल. ॥१६॥
संस्कृत (1)
विषयः
विद्वत्सेवामाहात्म्यं विवृणोति ।
पदार्थः
स पुरुषः । क्षयम्=स्वगृहम् । “क्षयन्ति निवसन्त्यत्रेति क्षयः” प्र+तिरते=दृढतरं मनोहरञ्च कृत्वा वर्धयति । पुनः सः । इषः=सम्पत्तीः । महीः=महतीः । वितिरते=विशेषेण जगति विस्तारयति । पुनः । धर्मणः+परि=यथा धर्मशास्त्रं शिक्षते तं विधिमाश्रित्य । प्रजाभिः=पुत्रपौत्रादिभिः सह । जायते । किं बहुना । सः । अरिष्टः=अहिंसितः सन् । सर्वः=सर्वः खलु विद्वत्सेवकः । एधते=सदा वर्धत एव । यः खलु । वराय=स्वस्वकल्याणाय । वः=युष्मभ्यम् । दाशति=सर्वं समर्पयति ॥१६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों की सेवा का माहात्म्य दिखलाते हैं ।
पदार्थ
हे विद्वानो ! (यः) जो मनुष्य (वराय) निज-२ कल्याण के लिये (वः) आप लोगों के निकट (दाशति) सब कुछ अच्छे भाव से समर्पित करता है (सः) वह (क्षयम्+प्रतिरते) अपने गृह को दृढ़ और मनोहर बनाकर बढ़ाता है । पुनः वह (इषः+महीः) सम्पत्तियों को बहुत (वि+तिरते) विशेष रूप से संचय करता जाता है और (धर्मणः+परि) धर्म के अनुसार (प्रजाभिः+प्रजायते) पुत्र पौत्रादिकों के साथ जगत् में विख्यात होता है । बहुत क्या कहें, (सर्वः) विद्वानों के सब ही सेवक (अरिष्टः) अहिंसित, उपद्रवरहित और आह्लादित हो (एधते) समाज में उन्नति की ओर बढ़ते जाते हैं ॥१६ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! विद्वानों की सेवा करो, विद्या से ही तुम्हारी सब प्रकार की उन्नति होगी ॥१६ ॥
विषय
विद्वानों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! ( यः ) जो मनुष्य ( वः ) आप लोगों को ( वराय ) श्रेष्ठ कार्य के लिये ( दाशति ) दान करता है ( सः ) वह ( क्षयं ) अपने गृहादि और ऐश्वर्य को ( प्र तिरते ) बढ़ा लेता है, वह ( मही: इषः प्र तिरते ) बहुत उत्तम अन्नों और उत्तम, वा बड़ी अभिलाषाओं को भी पूर्ण कर लेता है, वह (सर्व:) सब प्रकार से ही (अरिष्टः) आबाधित, दुःखरहित होकर ( धर्मणः परि ) धर्म के द्वारा (प्रजाभिः प्र जायते ) प्रजाओं से प्रजावान् होता और (परि एधते ) खूब बढ़ता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
दान व सर्वतो वृद्धि
पदार्थ
[१] हे देवो ! (यः) = जो (वराय) = उत्कृष्ट कार्यों के लिये (वः दाशति) = आपके प्रति दान करनेवाला होता है (सः) = वह (क्षयम्) = अपने गृह को (प्रतिरते) = खूब बढ़ानेवाला होता है। यह (महीः इषः) = महत्त्वपूर्ण अन्नों को बढ़ानेवाला होता है, इसके घर में सात्त्विक भोजनों की कमी नहीं रहती । [२] यह (धर्मणाः) = धर्म के द्वारा (प्रजाभिः) = सन्तानों से (परि प्रजायते सर्वतः) = उत्तम प्रजावाला होता है। और (अरिष्ट:) = अहिंसित होता हुआ (सर्वः एधते) = पूर्ण वृद्धि को प्राप्त होता है, यह 'शारीरिक स्वास्थ्य, मानस प्रसाद व बुद्धि की तीव्रता' रूप सब धनों को प्राप्त करता है।
भावार्थ
भावार्थ- उत्तम कार्यों के लिये देवों को देनेवाला पुरुष [क] गृह को बढ़ाता है, [ख] सात्त्विक अन्नों की वहाँ कमी नहीं होती, [ग] उत्तम सन्तान को प्राप्त करता है और [घ] 'शरीर, मन, बुद्धि' सब के दृष्टिकोणों से बढ़ता है।
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