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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 11
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    इ॒दा हि व॒ उप॑स्तुतिमि॒दा वा॒मस्य॑ भ॒क्तये॑ । उप॑ वो विश्ववेदसो नम॒स्युराँ असृ॒क्ष्यन्या॑मिव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दा । हि । वः॒ । उप॑ऽस्तुतिम् । इ॒दा । वा॒मस्य॑ । भ॒क्तये॑ । उप॑ । वः॒ । वि॒श्व॒ऽवे॒द॒सः॒ । न॒म॒स्युः । आ । असृ॑क्षि । अन्या॑म्ऽइव ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदा हि व उपस्तुतिमिदा वामस्य भक्तये । उप वो विश्ववेदसो नमस्युराँ असृक्ष्यन्यामिव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदा । हि । वः । उपऽस्तुतिम् । इदा । वामस्य । भक्तये । उप । वः । विश्वऽवेदसः । नमस्युः । आ । असृक्षि । अन्याम्ऽइव ॥ ८.२७.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O divinities of the world who know and command all wealth and honours of life, just now I, searching for new attainments and cherished joys of life with all reverence and humility, compose and offer to you this sincere song of latest adoration like a new stream of spontaneous creation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    नवनवीन स्तुतिरचना करण्याने अनेक लाभ होतात. प्रथम आपली वाणी पवित्र होते. वारंवार विचार करण्याने अंत:करण शुद्ध होते. साहित्याची उन्नती होते व भावी संतानासाठी सुपथ बनतो. ॥११॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    ईप्सितवस्तुलाभाय प्रार्थनारचनोपदेशः ।

    पदार्थः

    हे विश्ववेदसः=निखिलधनसम्पन्ना देवाः । नमस्युः= नमस्कारयुक्तो नम्रः सन् अन्नमिच्छन् वा । अहमुपासकः । वः=युष्माकम् । वामस्य=वननीयस्य=कमनीयस्य वस्तुनः । भक्तये=भजनाय=लाभाय । इदा=इदानीम् । हि=एव । इदा=इदानीमेव । वः=युष्माकम्=युष्मदर्थम् । अन्यामिव= अक्षयधारां नदीमिव । उपस्तुतिम्=मनोहरप्रार्थनाम् । उप+आ+असृक्षि=उपासृजामि=विरचयामि । तामादाय प्रसीदतेत्यर्थः ॥११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अभीष्ट वस्तुओं के लाभ के लिये नवीन-२ प्रार्थना बनानी चाहिये, यह उपदेश देते हैं ।

    पदार्थ

    (विश्ववेदसः) हे सर्वधनसम्पन्न विद्वानो ! (वः) आप लोगों के निकट (वामस्य+भक्तये) अतिकमनीय वस्तु की प्राप्ति के लिये (नमस्युः) नमस्कारपूर्वक या अभीष्टकामी मैं उपासक (इदा+हि) इस समय ही (इदा) इसी समय (वः) आप लोगों के लिये (अन्याम्+इव) अन्यान्य अक्षयधारा नदी के समान (उपस्तुतिम्) इस मनोहर प्रार्थना को (उप+आ+असृक्षि) विधिपूर्वक रच रहा हूँ । कृपया इसे ग्रहणकर प्रसन्न हूजिये ॥११ ॥

    भावार्थ

    नवीन-२ स्तुतिरचना करने में अनेक लाभ हैं । प्रथम तो अपनी वाणी पवित्र होती, वारंवार विचारने से अन्तःकरण शुद्ध होता है, साहित्य की उन्नति और भावी सन्तान के लिये सुपथ बनता जाता है ॥११ ॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( विश्व-वेदसः ) विश्व के धन के स्वामियो ! वा समस्त ज्ञानों और धनों को धारण करने वाले विद्वान् वीर पुरुषो! मैं राजा (नमस्युः) 'नमस्' अर्थात् शत्रुओं को विनय की शिक्षा देने वाले दण्ड को अपने वश में करना चाहने वाला होकर ( वः ) आप लोगों को ( वामस्य भक्तये ) उत्तम ऐश्वर्य के सेवन करने के लिये ( इदा हि वः ) अब आप लोगों को ( अन्याम् उप स्तुतिम् इव ) नई से नई शिक्षा ( आ उप असृक्षि ) प्रदान करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    दिव्य गुणों का धारण प्रभु-भजन

    पदार्थ

    [१] हे (विश्ववेदसः) = सम्पूर्ण ज्ञानों व धनों को प्राप्त करानेवाले देवो! [विश्वं वेदः यस्मात्] मैं (इदा हि) = अभी ही (वः) = आप की (उपस्तुतिम्) = समीप आसीन होकर स्तुति को (उप आ असृक्षि) = निर्मित करता हूँ, आपका स्तवन करता हूँ। इन देवों का स्तवन हमें भी देववृत्ति का बनाता है। यह स्तवन (इदा) = अब (वामस्य) = उस सर्वोत्तम, सुन्दरतम प्रभु के (भक्तये) = भजन के लिये हो जाता है। [२] हे देवो! मैं आपकी (अन्यां इव) = असाधारण ही पहले औरों से न की गई, औरों से विलक्षण स्तुति को करता हूँ। मैं आपकी क्रियात्मक स्तुति करता हूँ, आपको अपनाता हुआ आपका स्तोता बनता हूँ । (नमस्युः) = इस स्तुति के द्वारा मैं प्रभु के प्रति नमन की भावनावाला होता हूँ। जितना-जितना मैं दिव्य गुणों को अपनाता हूँ, उतना उतना ही विनत बनता जाता हूँ, विनित बनना ही तो प्रभु का बनना है। यह विनीतता मुझे प्रभु के समीप पहुँचाती है।

    भावार्थ

    भावार्थ-दिव्य गुणों का स्तवन करते हुए हम प्रभु के उपासक बन जायें। दिव्य गुणों का स्तवन व अपनाना ही प्रभु के प्रति नमन है।

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