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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 15
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - आर्चीबृहती स्वरः - मध्यमः

    प्र व॑: शंसाम्यद्रुहः सं॒स्थ उप॑स्तुतीनाम् । न तं धू॒र्तिर्व॑रुण मित्र॒ मर्त्यं॒ यो वो॒ धाम॒भ्योऽवि॑धत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । वः॒ । शं॒सा॒मि॒ । अ॒द्रु॒हः॒ । स॒म्ऽस्थे । उप॑ऽस्तुतीनाम् । न । तम् । धू॒र्तिः । व॒रु॒ण॒ । मि॒त्र॒ । मर्त्य॑म् । यः । वः॒ । धाम॑ऽभ्यः । अवि॑धत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र व: शंसाम्यद्रुहः संस्थ उपस्तुतीनाम् । न तं धूर्तिर्वरुण मित्र मर्त्यं यो वो धामभ्योऽविधत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । वः । शंसामि । अद्रुहः । सम्ऽस्थे । उपऽस्तुतीनाम् । न । तम् । धूर्तिः । वरुण । मित्र । मर्त्यम् । यः । वः । धामऽभ्यः । अविधत् ॥ ८.२७.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    In the house of prayer and adoration, I exalt you, Vishvedevas, free from jealousy and enmity. O Mitra, loving friend, O Varuna, lord of judgement and wisdom, no fraud, no mischief, no damage can be done to the mortal who dedicates himself with the strength of his body, mind and soul to your light and grace.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    निश्चल निष्कपट होऊन प्रेमाने विद्वानांची सेवा करा व त्यांच्याकडून उत्तमोत्तम शिक्षण ग्रहण करा. ॥१५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    विद्वद्गोष्ठीलाभाय प्रार्थना ।

    पदार्थः

    हे अद्रुहः=द्रोहशून्याः । उपस्तुतीनाम्=प्रियस्तोत्राणाम् । संस्थे=स्थाने यज्ञे । वः=युष्मान् । प्रशंसामि । हे वरुण=वरणीय ! हे मित्र ! यः पुरुषः । वः=युष्मान् । धामभ्यः=धामभ्यो मनोवचनकायैः । विधत्=परिचरति=सेवते । तं मर्त्यम् । धूर्तिः=वधः । न प्राप्नोति ॥१५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    यह प्रार्थना विद्वानों की गोष्ठी के लाभ के लिये है ।

    पदार्थ

    (अद्रुहः) हे द्रोहरहित हिंसाशून्य विद्वानो ! मैं उपासक (उपस्तुतीनाम्) मनोहर स्तोत्रों के (संस्थे) स्थान में अर्थात् यज्ञादिस्थलों में (वः) तुम्हारी ही (प्रशंसामि) प्रशंसा करता हूँ । (वरुण+मित्र) हे वरणीय हे मित्र विद्वानो ! (यः) जो मनुष्य (धामभ्यः) मन, वचन और कार्य से (वः+विधत्) तुम्हारी सेवा करता है, (तम्+मर्त्यम्) उस मनुष्य के (धूर्तिः) शत्रुओं की ओर से वध (न) प्राप्त नहीं होता है ॥१५ ॥

    भावार्थ

    निश्छल निष्कपट हो प्रेम से विद्वानों की सेवा करो और उनसे उत्तमोत्तम शिक्षा ग्रहण करो ॥१५ ॥

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    विषय

    विद्वानों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अद्रुहः ) द्रोहरहित पुरुषो ! ( संस्थे ) एकत्र मिलकर बैठने के योग्य सभा आदि में ( उप-स्तुतीनां ) स्तुति योग्य ( वः ) आप लोगों की ( प्रशंसामि ) प्रशंसा करता हूं। ( यः मर्त्यः ) जो मनुष्य हे ( वरुण ) श्रेष्ठ, हे ( मित्र ) स्नेहवान् ! ( धामभ्यः ) उत्तम जन्म, स्थान और तेज को प्राप्त करने के लिये ( वः अविधत् ) आप लोगों की सेवा करता है ( तं ) उसको ( धूर्त्तिः ) किसी प्रकार की हिंसा या बाधा नहीं सताती।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    मित्र- वरुण आदि के तेज का पूजन

    पदार्थ

    [१] हे (अद्रुहः) = द्रोह की भावना से शून्य देवो! (उपस्तुतीनाम्) = [उप इत्य स्तुतिर्येषां ] मिलकर स्तुति करने के योग्य (वः) = आपका (संस्थे) = मिलकर बैठने के स्थान इस यज्ञभूमि में (प्रशंसामि) = खूब ही शंसन करता हूँ। [२] हे (मित्र वरुण) = स्नेह व निर्देषता की देवताओ ! (यः) = जो भी पुरुष (वः) = आपके (धामभ्यः) = तेजों के लिये (अविधत्) = पूजन करता है, (तम्) = उस पुरुष को (धूर्तिः न) = हिंसा बाधित नहीं करती । मित्र व वरुण का उपासक कभी हिंसा आदि की भावनाओं का शिकार नहीं होता।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम यज्ञों में, मिलकर बैठने के स्थानों में 'मित्र व वरुण' आदि देवों का शंसन किया करें। इनका तेज हमें सब हिंसनों से बचानेवाला होगा।

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