ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 17
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ऋ॒ते स वि॑न्दते यु॒धः सु॒गेभि॑र्या॒त्यध्व॑नः । अ॒र्य॒मा मि॒त्रो वरु॑ण॒: सरा॑तयो॒ यं त्राय॑न्ते स॒जोष॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒ते । सः । वि॒न्द॒ते॒ । यु॒धः । सु॒ऽगेभिः॑ । या॒ति॒ । अध्व॑नः । अ॒र्य॒मा । मि॒त्रः । वरु॑णः॒ । सऽरा॑तयः । यम् । त्राय॑न्ते । स॒ऽजोष॑सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋते स विन्दते युधः सुगेभिर्यात्यध्वनः । अर्यमा मित्रो वरुण: सरातयो यं त्रायन्ते सजोषसः ॥
स्वर रहित पद पाठऋते । सः । विन्दते । युधः । सुऽगेभिः । याति । अध्वनः । अर्यमा । मित्रः । वरुणः । सऽरातयः । यम् । त्रायन्ते । सऽजोषसः ॥ ८.२७.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Without fight and struggle, he achieves, he wins everything, and he goes further forward by simple and straight paths of honesty without obstruction whom Aryama, guide and pioneer of the ways of life, Mitra, enlightened friend, and Varuna, lord of judgement and wisdom, all generous and affluent, in love and unison together, favour protect and exhort to rise and advance.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रत्येक मानवसमाज व देशातील विचारशील पुरुषांबरोबर सत्संग करावा व त्यांच्या संमतीने आपले आचरण बनवावे. तेव्हाच मोठी समृद्धी होते. ॥१७॥
संस्कृत (1)
विषयः
विद्वद्रक्षामाहात्म्यं प्रदर्शयति ।
पदार्थः
यं पुरुषम् । अर्य्यमा=वैश्यप्रतिनिधिः । मित्रः=ब्राह्मणप्रतिनिधिः । वरुणः=राजप्रतिनिधिः । एते । सरातयः=समानदानाः । सजोषसः=परस्परं संमिलिताः सप्रीतयश्च । त्रायन्ते=रक्षन्ति । सः । युधः=संग्रामात् । “युध संहारे भावे क्विप्” । ऋते=विनापि । विन्दते=ज्ञानधनादि लभते । पुनः । सुगेभिः=शोभनगमनैः । अध्वनो याति ॥१७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों की रक्षा का माहात्म्य दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(यम्) जिस पुरुष के प्रति (अर्य्यमा) वैश्यप्रतिनिधि (मित्रः) ब्राह्मणप्रतिनिधि (वरुणः) राजप्रतिनिधि, ये तीनों मिलकर (सरातयः) समानरूप से दान देते हैं और (सजोषसः) जिसके ऊपर समान प्रीति करते हैं या जिसके गृह पर मिलते रहते हैं, (सः) वह पुरुष (युधः+ऋते) मानसिक और लौकिक युद्ध के बिना ही (विन्दते) नाना सम्पत्तियों का सञ्चय करता है और (सुगेभिः) अपने समाज में उत्तम धर्म, उत्तम शिक्षा, नम्रता, वाणी की मधुरता और सौजन्य आदि जो अच्छे गमन हैं, उनके साथ (अध्वनः+याति) पैतृक मार्ग पर चलता है अथवा (सुगेभिः+अध्वनः+याति) हय, गन्न आदि सुन्दर यानों से मार्ग पर चलता है ॥१७ ॥
भावार्थ
प्रत्येक नर समाज और देश के विचारशील पुरुषों के साथ सत्सङ्ग करे और उनकी सम्मति लेकर अपने आचरण बनावे, तब ही उसकी महती समृद्धि होती है ॥१७ ॥
विषय
विद्वानों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( अर्यमा ) शत्रुओं वा दुष्ट पुरुषों का नियन्ता न्यायवान्, ( मित्रः ) स्नेहवान् और ( वरुणः ) श्रेष्ठजन ( स-रातयः ) दानशील, कृपालु और (स-जोषसः ) प्रीतियुक्त होकर ( यं त्रायन्ते ) जिसकी रक्षा करते हैं ( सः ) वह राष्ट्रवासी जन ( युधः ऋते ) विना युद्ध के ही ( विन्दते ) ऐश्वर्य प्राप्त करता और ( सु-गेभिः ) उत्तम सुखप्रद यानों से ( अध्वनः याति ) मार्गों को जाता आता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
'अर्यमा मित्र व वरुण' की उपासना का फल
पदार्थ
[१] (यम्) = जिसको (अर्यमा) = [ अरीन् यच्छति] काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नियामक देव, (मित्रः) = स्नेह का देवता (वरुणः) = द्वेष निवारण का देव (सरातयः) = समानरूप से 'स्वास्थ्य (मनः) = प्रसाद व बुद्धि की तीव्रता' रूप धनों को प्राप्त करानेवाले होते हुए, (सजोषसः) = परस्पर संगत हुए हुए (त्रायन्ते) = रक्षित करते हैं (सः) = वह (युधः ऋते) = बिना ही बाह्य युद्धों के बिना किन्हीं महान् क्लेशों के (विन्दते) = सब आवश्यक धनों को प्राप्त करता है और (सुगेभिः) = उत्तम गन्तव्य साधनों से (अध्वनः याति) = मार्गों का आक्रमण करता है। [२] हम अपने जीवन में काम-क्रोध आदि का नियमन करते हुए 'स्नेह व निर्देषता' को अपनाते हैं, तो बिना अत्यधिक आयास के हम आवश्यक धनों व जीवनयात्रा के साधनों को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- जीवन में हमारा प्रयत्न यह हो कि हम काम-क्रोध के वशीभूत न होकर स्नेह व निर्देषता से चलें। इस प्रकार हम बिना परेशानी के आवश्यक धनों व गमनसाधनों को प्राप्त करेंगे।
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