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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    आ नो॑ अ॒द्य सम॑नसो॒ गन्ता॒ विश्वे॑ स॒जोष॑सः । ऋ॒चा गि॒रा मरु॑तो॒ देव्यदि॑ते॒ सद॑ने॒ पस्त्ये॑ महि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । अ॒द्य । सऽम॑नसः । गन्त॑ । विश्वे॑ । स॒ऽजोष॑सः । ऋ॒चा । गि॒रा । मरु॑तः । देवि॑ । अदि॑ते । सद॑ने । पस्त्ये॑ । म॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो अद्य समनसो गन्ता विश्वे सजोषसः । ऋचा गिरा मरुतो देव्यदिते सदने पस्त्ये महि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नः । अद्य । सऽमनसः । गन्त । विश्वे । सऽजोषसः । ऋचा । गिरा । मरुतः । देवि । अदिते । सदने । पस्त्ये । महि ॥ ८.२७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Red gird maruto devyadite sadane pastye mahi.$All powers of love and friendship of the world with equal mind may come in to us in our great halls and homes in response to our Rks, hymns of adoration, come all Maruts, friends and brave associates, great inviolable Aditi, motherly figures, come today.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लहान मोठे, मूर्ख, विद्वान, राजा व प्रजा यज्ञात श्रद्धेने येतात. ते सर्व सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    यज्ञे सर्वे पूजनीया इति दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे विश्वे=सर्वे विद्वांसः ! समनसः=समानमनस्काः=एकमनसो भूत्वा । सजोषसः=परस्परं समानकार्य्याय संगताश्च भूत्वा । अद्य=अस्मिन् दिने । नोऽस्मान् । आगन्त=आगच्छत । ततः । हे मरुतः=सर्वे सम्बन्धिनः ! यूयम् । गिरा+ऋचा=वाण्या स्तोत्रेण च सह । अपि च । हे महि=देवि अदिते ! सदने=स्थाने । पस्त्ये=गृहे च । उपविशत ॥५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    यज्ञ में सब ही पूजनीय हैं, यह दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (विश्वे) हे सर्व विद्वानो ! (समनसः) आप सब एकमन होकर और (सजोषसः) समान कार्य्य के लिये सब कोई मिलकर (अद्य+नः) आज हमारे साथ (आगन्त) आवें और कार्य्य में सहयोग देवें तथा (मरुतः) हे बन्धु बान्धवो तथा (महि+देवि+अदिते) माननीय देवी माताओ ! (गिरा) सुन्दर वचन (ऋचा) और स्तुतिसहित होकर हमारे (सदने+पस्त्ये) स्थानों और गृहों में बैठें ॥५ ॥

    भावार्थ

    जो छोटे, बड़े, मूर्ख, विद्वान्, राजा और प्रजा यज्ञ में श्रद्धा से आवें, वे सब ही सत्कारयोग्य हैं ॥५ ॥

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    विषय

    विद्वान् से ज्ञान की याचना।

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) विद्वान मनुष्यो ! आप लोग ( विश्वे ) सब ( स-जोषसः ) समान प्रीतियुक्त और ( स-मनसः ) समान चित्त होकर ( नः अद्य आ गन्त ) आज हमे प्राप्त होवो। हे ( देवि ) विदुषि ! हे ( अदिते ) मातः ! तू भी ( ऋचा गिरा ) अर्चना योग्य सत्कारयुक्त वेदवाणी से युक्त होकर ( सदने ) सभा भवन और ( महि पस्त्ये ) बड़े भवन में आओ। इत्येकत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    देव-सम्पर्क-प्राणसाधना- स्वास्थ्य

    पदार्थ

    [१] हे (विश्वे) = सब देवो! आप (सजोषसः) = समानरूप से प्रीतिपूर्वक कर्त्तव्य कर्मों का सेवन करनेवाले होते हुए (समनसः) = समान चित्त होकर (नः) = हमें (अद्य) = आज (आगन्ता) = प्राप्त होवो | हमारा देवों के साथ सम्पर्क हो, जो देव मिलकर प्रीतिपूर्वक कर्त्तव्य कर्मों को करते हैं तथा समान चित्तवाले होते हैं। [२] हे (मरुतः) = प्राणो ! तथा (महि) = अत्यन्त महत्त्वपूर्ण (देवि) = दिव्य गुणों की जननि (अदिते) = स्वास्थ्य की देवते! आप (ऋचा) = ज्ञान की वाणियों के साथ तथा (गिरा) = स्तुति-वाणियों के साथ सदने हमारे बैठने के स्थान (पस्त्ये) = इस गृह में [आगन्त] आओ।

    भावार्थ

    भावार्थ- देवों के सम्पर्क में हमारा जीवन चले, हम स्वस्थ बनें, प्राणसाधना में प्रवृत्त हों, स्वाध्याय तथा स्तवन की वृत्तिवाले हों।

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