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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 14
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    दे॒वासो॒ हि ष्मा॒ मन॑वे॒ सम॑न्यवो॒ विश्वे॑ सा॒कं सरा॑तयः । ते नो॑ अ॒द्य ते अ॑प॒रं तु॒चे तु नो॒ भव॑न्तु वरिवो॒विद॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वासः॑ । हि । स्म॒ । मन॑वे । सऽम॑न्यवः । विश्वे॑ । सा॒कम् । सऽरा॑तयः । ते । नः॒ । अ॒द्य । ते । अ॒प॒रम् । तु॒चे । तु । नः॒ । भव॑न्तु । व॒रि॒वः॒ऽविदः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवासो हि ष्मा मनवे समन्यवो विश्वे साकं सरातयः । ते नो अद्य ते अपरं तुचे तु नो भवन्तु वरिवोविद: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवासः । हि । स्म । मनवे । सऽमन्यवः । विश्वे । साकम् । सऽरातयः । ते । नः । अद्य । ते । अपरम् । तुचे । तु । नः । भवन्तु । वरिवःऽविदः ॥ ८.२७.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 14
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    All divinities of the world in nature and humanity, all together with gifts of wealth, knowledge and excellence, with equal mind and intention, have been generous to men of holy thought and noble purpose in search of divinity. May they be, today and ever in future, givers of the best of life’s wealth for us and our future generations in peace and plenty.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांनी कधीही आळस व घृणा न करता प्रजेमध्ये जाऊन सद्विद्येचे बीज पेरावे. ॥१४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    विदुषामुदारत्वं दर्शयत्यनया ।

    पदार्थः

    मनवे=ईश्वरीयविभूतीनां मन्त्रे विज्ञात्रे च पुरुषाय । विश्वे+देवासः=सर्वे विद्वांसः । समन्यवः=समानमनसः= समानप्रीतयः । हि स्म । साकम्+सरातयः=सार्धमेव दानसहिता भवन्ति । ते देवाः । अद्य=अस्मिन् दिने । ते । अपरम्=आगामिषु च दिवसेषु । नः=अस्माकम् । तु=पुनः । नस्तुचे=अस्माकमपत्याय च । वरिवोविदः=वरिवसां धनानां लम्भयितारः । भवन्तु ॥१४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    इससे विद्वानों का उदारत्व दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (मनवे) ईश्वरीय विभूतियों के मनन और जाननेवाले पुरुष के लिये (विश्वे+देवासः) सब ही विद्वान् (समन्यवः+हि+स्म) समान रीति से प्रीति और सम्मान करते आए हैं और (साकम्+सरातयः) साथ-२ उनको धन, ज्ञान और उत्तमोत्तम शिक्षा भी देते आए हैं । (ते) वे विद्वद्वर्ग (अद्य) आज (अपरम्) और आगामी दिनों में अर्थात् सदा (नः) वर्तमानकालिक हमको (तु+नः+तुचे) और हमारे भावी सन्तान के लिये (वरिवोविदः+भवन्तु) सब प्रकार के सुख पहुँचानेवाले होवें ॥१४ ॥

    भावार्थ

    विद्वद्वर्ग कदापि आलस्य और घृणा न करके प्रजाओं में जा-जाकर सद्विद्या का बीज बोया करें ॥१४ ॥

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    विषय

    विद्वानों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( समन्यवः देवास: ) ज्ञानवान्, और दानशील और तेजस्वी और ( विश्वे ) समस्त ( स-रातयः ) धनादि सम्पन्न पुरुष ( मनवे ) मननशील व्यक्ति के उपकार के लिये ही ( वरिवः-विदः भवन्तु ) उत्तम धन को प्राप्त कराने वाले हों। और ( ते ) वे ( अद्य ) आज ( नः ) हमें भी ( वरिवः-विदः भवन्तु ) धनदाता हों। ( अपरं तु ) बाद में भी ( नः तुचे ) हमारे पुत्रादि के लिये भी ( वरिवः-विदः भवन्तु ) धनादि के दाता हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    समन्यवः देवासः

    पदार्थ

    [१] (देवासः) = 'माता, पिता, आचार्य, अतिथि' आदि देव (हि ष्म) = निश्चय से (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिये (समन्यवः) = क्रतुवाले होते हैं [मन्यु क्रतु] प्रज्ञान व शक्ति को प्राप्त करानेवाले होते हैं। ये सब (साकम्) = मिलकर (सरातयः) = उसके ज्ञान शक्ति रूप धनों को देनेवाले होते हैं। [२] (ते) = वे सब (अद्य) = आज (नः) = हमारे लिये (वरिवोविदः) = उत्तम धनों को प्राप्त करानेवाले हों। हमारे लिये तो देव धनों को दें ही, (अपरं तु) = और पिछले दिनों में, आगे आनेवाले दिनों में (तुचे) = हमारे सन्तानों के लिये भी ये आचार्य व अतिथिरूप देव उत्तम ज्ञान धनों को दें।

    भावार्थ

    भावार्थ- माता, पिता, आचार्य, अतिथि आदि देव हमारे लिये तथा हमारे आगे आनेवाले सन्तानों के लिये भी ज्ञान व शक्तिरूप धन को प्राप्त करायें।

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