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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 17
    ऋषिः - अथर्वा देवता - तता महापितरगणः छन्दः - त्रिपदा विराट्शक्वरी सूक्तम् - ब्रह्मकर्म सूक्त
    56

    त॒तस्त॑ताम॒हास्ते॑ मावन्तु। अ॒स्मिन्ब्रह्म॑ण्य॒स्मिन्कर्म॑ण्य॒स्यां पु॑रो॒धाया॑म॒स्यां प्र॑ति॒ष्ठाया॑म॒स्यां चित्त्या॑म॒स्यामाकू॑त्याम॒स्यामा॒शिष्य॒स्यां दे॒वहू॑त्यां॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त॒त: । त॒ता॒म॒हा: । ते । मा॒ । अ॒व॒न्तु॒ । अ॒स्मिन् । कर्म॑णि । अ॒स्याम् । पु॒र॒:ऽधाया॑म् । अ॒स्याम् । प्र॒ति॒ऽस्थाया॑म् । अ॒स्याम् । चित्त्या॑म् । अ॒स्याम् । आऽकू॑त्याम् । अ॒स्याम् । आ॒ऽशिषि॑ । अ॒स्याम् । दे॒वऽहू॑त्याम् । स्वाहा॑ ॥२४.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ततस्ततामहास्ते मावन्तु। अस्मिन्ब्रह्मण्यस्मिन्कर्मण्यस्यां पुरोधायामस्यां प्रतिष्ठायामस्यां चित्त्यामस्यामाकूत्यामस्यामाशिष्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत: । ततामहा: । ते । मा । अवन्तु । अस्मिन् । कर्मणि । अस्याम् । पुर:ऽधायाम् । अस्याम् । प्रतिऽस्थायाम् । अस्याम् । चित्त्याम् । अस्याम् । आऽकूत्याम् । अस्याम् । आऽशिषि । अस्याम् । देवऽहूत्याम् । स्वाहा ॥२४.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 24; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रक्षा के लिये प्रयत्न का उपदेश।

    पदार्थ

    (ततः) और भी (ते) वे (ततामहाः=तातामहाः) पूजनीयों के पूजनीय पुरुष (मा) मुझे (अवन्तु) बचावें, (अस्मिन्) इस (ब्रह्मणि) वेदज्ञान में, (अस्मिन् कर्मणि) इस कर्तव्य व्रत में, (अस्याम् पुरोधायाम्) इस पुरोहित पदवी में, (अस्याम् प्रतिष्ठायाम्) इस प्रतिष्ठा वा सत्क्रिया में, (अस्याम् चित्त्याम्) इस चेतना में, (अस्याम् आकूत्याम्) इस संकल्प वा उत्साह में, (अस्याम् आशिषि) इस अनुशासन में, और (अस्याम् देवहूत्याम्) इस विद्वानों के बुलावे में, (स्वाहा) यह आशीर्वाद हो ॥१७॥

    भावार्थ

    मनुष्य बड़ों से बड़े विद्वान्, योगी, शूर वीरों के आचरणों पर पूर्ण ध्यान देकर सदा शुभ कर्म करके परस्पर प्रीति और उन्नति करें ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(ततः) अनन्तरम् (ततामहाः) म० १६। मातृपितृभ्यां पितरि डामहच्। वा० पा० ४।२।२६। इति तात−डामहच्, छान्दसो ह्रस्वः। पितॄणां पितरः। पूजनीयानां पूज्याः। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    ततामहाः

    पदार्थ

    १. (तत:) = तब-उसके पश्चात् (ते) = वे (ततामहा:) = मेरे पौत्र भी (मा अवन्तु) = मेरा रक्षण करें। 'मेरे सच्चरित्र से उन्हें अपने कुल के गौरव का अनुभव होगा' यह सोचकर मैं कभी पथ-भ्रष्ट नहीं होऊगा। २. पौत्रों व प्रपौत्रों में यश का विचार मुझे उज्ज्वल चरित्रवाला बनाएगा। इसप्रकार मैं उत्तम कर्मों में ही अपना अर्पण करूँगा। शेष पूर्ववत् ।

    भावार्थ

    पौत्रों व प्रपौत्रों में कुल के गौरव को अनुभव कराने की भावना मुझे सत्कर्म में प्रवृत्त करती है।

    विशेष

    इसप्रकार उत्तम कर्म से डौंवाडोल न होता हुआ यह अथर्वा [न थर्वति] 'ब्रह्मा' बनता है-सर्वोन्नत। अगले सूक्त का द्रष्टा यह ब्रह्मा ही है।

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    भाषार्थ

    (ततः तताः) तात आदि (मन्त्र १६), तथा (ततामहाः) तात आदि के पिता आदि, (तेमा अवन्तु) वे मेरी रक्षा करें। (अस्मिन् ब्रह्मणि) इस वेदज्ञान की प्राप्ति में, (अस्मिन् कर्मणि) इस वैदिक कर्म में, (अस्याम् पुरोधायाम्) इस संमुख-स्थापित अभिलाषा की पूर्ति में, (अस्याम् प्रतिष्ठायाम् ) इस दृढ़ स्थिति में, (अस्याम्, चित्त्याम्) इस स्मृतिशक्ति में, (अस्याम् आकूत्याम् ) इस संकल्प में, (अस्याम् आशिष्यस्याम्) इस आशा की पूर्ति में, (देवहूत्याम्) दिव्यगुणों या विद्वानों के आह्वान में, (स्वाहा) यह उत्तम कथन हुआ है।

    टिप्पणी

    [तताः, ततः 'तन्' धातु के रूप हैं, जिसका अर्थ है विस्तार। 'सन्तान' पद में भी 'तन्' धातु है। सन्तानें पूर्व पुरुषों का विस्ताररूप होती हैं, उनके वीर्य का विस्तार रूप ही होती हैं।]

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    विषय

    परमेश्वर से धर्म-कार्य में रक्षा की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (ततः) उनसे उतर कर (ततामहाः) हमारे सन्तानों के भी सन्तान हैं (ते) वे (मा० अवन्तु) मेरी (अस्मिन् ब्रह्मणि०) उक्त वेदाध्ययन, यज्ञ, पुरोहिताई, प्रतिष्ठा, ज्ञानमयी स्थिति, सद्विचार, सदाशा, विद्वत्सभा आदि सत्कार्यों में रक्षा करे। यही हमारी शुभ प्रार्थना है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। ब्रह्मकर्मात्मा देवता। १-१७ चतुष्पदा अतिशक्वर्यः। ११ शक्वरी। १५-१६ त्रिपदा। १५, १६ भुरिक् अतिजगती। १७ विराड् अतिशक्वरी। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-Protection, Brahma Karma

    Meaning

    May our parents and grand parents and their parents protect and promote me in this divine process of living and learning, in this programme of work, in this priestly task of life, in this position of prestige, in this planned life, in this resolution of good living, in this blessed life and in this yajnic life dedicated to the divinities. This is the voice of truth from the depth of heart and soul in earnest prayer. (Life is a gift of our parents and our forefathers. It is a gift of Nature, and ultimately it is a gift of God. They that give never wish that it be wasted or destroyed, they protect it too and help us live it the way it is intended to be lived. This sukta suggests that we pray for protection and promotion, and we live it, through every thing we do, and every moment we live, for the personal, social and divine purpose and fulfilment for which it is meant.)

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    Translation

    Fathers become grand fathers (tatas-tatamahah); may they favour me in this prayer, in this rite, in this priestly representation, in this firm-standing, in this intent (or idea), in this design, in this benediction, and in this invocation of the bounties of Nature. Svaha. (Each verse devoted to a separate Divinity - From Savitr to Tatamahah)

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    Translation

    Tatamah, the men of mature knowledge, protect me in this attainment of Knowledge, in this my act, in this my sacerdotal undertaking, in this my act of life's stability, in this intention, in this my deliberate activity, in this performance expectation and prosperity and in this my activity of yajna and science. Whatever uttered herein is correct.

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    Translation

    May the venerable of venerable persons preserve me, in this my study of the Vedas, in this duty of mine, in this my sacerdotal charge, in this noble performance, in this meditation, in this my resolve and determination, in thisadministration, in this assembly of the learned. May this noble prayer of mine be fulfilled.

    Footnote

    Pt. Jaidev Vidyalankara translated ततामहाः तेas sons and grandsons.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(ततः) अनन्तरम् (ततामहाः) म० १६। मातृपितृभ्यां पितरि डामहच्। वा० पा० ४।२।२६। इति तात−डामहच्, छान्दसो ह्रस्वः। पितॄणां पितरः। पूजनीयानां पूज्याः। अन्यद् गतम् ॥

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