अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 6/ मन्त्र 18
सूक्त - शन्तातिः
देवता - चन्द्रमा अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
एत॑ देवा दक्षिण॒तः प॒श्चात्प्राञ्च॑ उ॒देत॑। पु॒रस्ता॑दुत्त॒राच्छ॒क्रा विश्वे॑ दे॒वाः स॒मेत्य॒ ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒त॒ । दे॒वा॒: । द॒क्षि॒ण॒त: । प॒श्चात् । प्राञ्च॑: । उ॒त्ऽएत॑ । पु॒रस्ता॑त् । उ॒त्त॒रात् । श॒क्रा: । विश्वे॑ । दे॒वा: । स॒म्ऽएत्य॑ । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥८.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
एत देवा दक्षिणतः पश्चात्प्राञ्च उदेत। पुरस्तादुत्तराच्छक्रा विश्वे देवाः समेत्य ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इत । देवा: । दक्षिणत: । पश्चात् । प्राञ्च: । उत्ऽएत । पुरस्तात् । उत्तरात् । शक्रा: । विश्वे । देवा: । सम्ऽएत्य । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥८.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 6; मन्त्र » 18
भाषार्थ -
(प्राञ्चः शक्राः, देवाः) प्रगतिशील शक्तिशाली देवो ! अर्थात् द्योतमान सूर्य रश्मियों ! तुम (दक्षिणतः) दक्षिण से, (पश्चात्) पश्चिम से, (उत्तरात्) उत्तर से, (पुरस्तात्) पूर्व से (एत) आओ, (उदेत) अर्थात् उचित होओ। (ते विश्वे देवाः) वे तुम सब देव (समेत्य) मिल कर (नः) हमें (अंहस) हनन से (मुञ्चत) मुक्त करो।
टिप्पणी -
[देवाः= द्योतमान सूर्यरश्मियां। प्राञ्चः= प्रकर्षेण अञ्चन्ति गति कुर्वन्तीति, जो सदा गतिवाली है। सूर्यरश्मियां सदा गतिशील हैं। ये रश्मियां दक्षिण से पश्चिम और उत्तर की और घूम कर, पूर्व दिशा में आतीं, और पुन: पूर्व से दक्षिण की ओर जाती हैं। यह चक्कर सूर्य रश्मियों का विना विश्राम किये सदा चलता रहता है। शक्राः= सूर्य रश्मियां शक्तिशाली हैं। अन्धकार मानो इन से भयभीत हुआ, इन के आगे आगे भागता रहता है, और सूर्यरश्मियां इस का पीछा करती रहती हैं। सूर्य रश्मियां रोगों का विनाश करती, भूमण्डल को शुद्ध करती, जल, अन्न आादि प्रदान करती तथा नाना प्रकार से शक्ति प्रदान करती है। सूर्य रश्मियों के सेवन से आयु बढ़ती हैं। इस प्रकार से हमें हनन से मुक्त करती हैं। सायणाचार्य ने “यूयम् का अध्याहार कर "मुञ्चन्तु" का अर्थ किया है "मुञ्चत"। यथा "सर्वे देवाः समेत्य समागत्य ते यूयम् अस्मान् अंहसः पापात् मुञ्चतेति शेषः। समेत्य= सूर्य रश्मियां सदा परस्पर मिली हुई आती जाती हैं, और कार्य करती हैं]