अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 15
सूक्त - अथर्वा
देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
उ॑प॒हव्यं॑ विषू॒वन्तं॒ ये च॑ य॒ज्ञा गुहा॑ हि॒ताः। बिभ॑र्ति भ॒र्ता विश्व॒स्योच्छि॑ष्टो जनि॒तुः पि॒ता ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒ऽहव्य॑म् । वि॒षु॒ऽवन्त॑म् । ये । च॒ । य॒ज्ञा: । गुहा॑ । हि॒ता: । बिभ॑र्ति । भ॒र्ता । विश्व॑स्य । उत्ऽशि॑ष्ट: । ज॒नि॒तु: । पि॒ता ॥९.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
उपहव्यं विषूवन्तं ये च यज्ञा गुहा हिताः। बिभर्ति भर्ता विश्वस्योच्छिष्टो जनितुः पिता ॥
स्वर रहित पद पाठउपऽहव्यम् । विषुऽवन्तम् । ये । च । यज्ञा: । गुहा । हिता: । बिभर्ति । भर्ता । विश्वस्य । उत्ऽशिष्ट: । जनितु: । पिता ॥९.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 15
भाषार्थ -
(उपहव्यम्) उपहव्य [सोमयाग ?], (विषूवन्तम्) संवत्सर के उत्तरायण और दक्षिणायन के मध्यवर्ती दिन में किया जाने वाला सोमयाग, (ये च) और जो (यज्ञाः) यज्ञ (गुहाः हिताः) हृद्गुहा में (हिताः) निहित हैं, – (विश्वस्य भर्ता) विश्व का भरण-पोषण करने वाला (जनितुः पिता) पिता का भी पिता, (उच्छिष्टः) प्रलय में भी अवशिष्ट रहने वाला परमेश्वर, – उन सव का (बिभर्त्ति) भरण-पोषण करता है।
टिप्पणी -
['गुहा यज्ञाः" = गुहायां निगूढ़ा अविज्ञायमानाः (सायणाचार्य)।यज्ञा गुहा= स्तुति, प्रार्थना, उपासना योग, परमेश्वर का ध्यान आदि भी यज्ञकर्म हैं, जिन्हें कि हृदय की यज्ञशाला में किया जाता है। गुहा शब्द का प्रयोग हृदय गुहा के लिये भी होता है।शरीर भी यज्ञशाला है, देखो (अथर्व० ११।८।२९)]।