अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
दृ॒ढो दृं॑हस्थि॒रो न्यो ब्रह्म॑ विश्व॒सृजो॒ दश॑। नाभि॑मिव स॒र्वत॑श्च॒क्रमुच्छि॑ष्टे दे॒वताः॑ श्रि॒ताः ॥
स्वर सहित पद पाठदृ॒ढ: । दृं॒ह॒ऽस्थि॒र: । न्य: । ब्रह्म॑ । वि॒श्व॒ऽसृज॑: । दश॑ । नाभि॑म्ऽइव । स॒र्वत॑: । च॒क्रम् । उत्ऽशि॑ष्टे । दे॒वता॑: । श्रि॒ता: ॥९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
दृढो दृंहस्थिरो न्यो ब्रह्म विश्वसृजो दश। नाभिमिव सर्वतश्चक्रमुच्छिष्टे देवताः श्रिताः ॥
स्वर रहित पद पाठदृढ: । दृंहऽस्थिर: । न्य: । ब्रह्म । विश्वऽसृज: । दश । नाभिम्ऽइव । सर्वत: । चक्रम् । उत्ऽशिष्टे । देवता: । श्रिता: ॥९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(दृढः) दृढ पार्थिव लोक, (दृंहस्थिर) दृढ़ रूप से स्थिर नक्षत्र आदि (न्यः) नेतृवर्ग तथा नेयवर्ग, (ब्रह्म) महत्-प्रकृति जन्य तत्त्व, (विश्वसृजः दश) विश्व का सर्जन करने वाले दस अर्थात् पृथिवी, अप्, तेज, वायु, आकाश और ये ५ भूत, और पञ्च तन्मात्राएं-ये दस (देवाः) दिव्य पदार्थ, (उच्छिष्टे) उत्कृष्ट = अवशिष्ट परमेश्वर में (श्रिताः) आश्रय पाए हुए हैं, (इव) जैसे कि (चक्रम्) रथ का चक्र (नाभिम् सर्वतः) रथ की नाभि के सब ओर आश्रय पाता है।
टिप्पणी -
[दृढ़ः = पृथिवी लोक। यथा “येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा" (यजु० ३२।६)। दृंहस्थिरः- नक्षत्रादि, जोकि दृढ़तया अपने-अपने सापेक्ष स्थानों में स्थिर हैं। न्यः = प्रत्येक सौरमण्डल में सूर्य नेता होता है। और उस के ग्रह उपग्रह नेय होते हैं। ब्रह्म= बृहत्-प्रकृति तत्त्व। यथा "मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् ब्रह्म तस्मिन् गर्भ दधाम्यहम्" (गीता १४।३)]