अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 25
सूक्त - अथर्वा
देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
प्रा॑णापा॒नौ चक्षुः॒ श्रोत्र॒मक्षि॑तिश्च॒ क्षिति॑श्च॒ या। उच्छि॑ष्टाज्जज्ञिरे॒ सर्वे॑ दि॒वि दे॒वा दि॑वि॒श्रितः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒णा॒पा॒नौ । चक्षु॑: । श्रोत्र॑म् । अक्षि॑ति: । च॒ । क्षिति॑: । च॒ । या । उत्ऽशि॑ष्टात् । ज॒ज्ञि॒रे॒ । सर्वे॑ । दि॒वि । दे॒वा: । दि॒वि॒ऽश्रित॑: ॥९.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणापानौ चक्षुः श्रोत्रमक्षितिश्च क्षितिश्च या। उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः ॥
स्वर रहित पद पाठप्राणापानौ । चक्षु: । श्रोत्रम् । अक्षिति: । च । क्षिति: । च । या । उत्ऽशिष्टात् । जज्ञिरे । सर्वे । दिवि । देवा: । दिविऽश्रित: ॥९.२५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 25
भाषार्थ -
(प्राणापानौ) प्राण और अपान, (चक्षुः क्षोत्रम्) आंख, कान, (अक्षितिः) न क्षीण होने वाला मन, (क्षितिः) और क्षय होने वाला शरीर, तथा (सर्वे देवाः) सब देव (दिवि) जोकि द्युलोक में हैं, (दिविश्रितः) और द्युलोक में जिन का आश्रय है,― (उच्छिष्टात्) प्रलय में भी अवशिष्ट परमेश्वर से (जज्ञिरे) पैदा हुए हैं।
टिप्पणी -
[उत्पन्न-मन तब तक स्थिर रहता है, विनष्ट नहीं होता, जब तक कि जीवात्मा का मोक्ष नहीं होता। अतः मन को अक्षिति कहा है, और इसे वेदों में अमृत भी कहा है। मन्त्र में प्राणापान आदि की उत्पत्ति कही है, इसलिये ११।८।४ के मन्त्र में, और इस मन्त्र में प्रतिपादित, अक्षिति और क्षिति के अर्थों में कुछ भेद हुआ है]।