अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 22/ मन्त्र 10
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - आसुरी जगती
सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त
तृ॒तीये॑भ्यः श॒ङ्खेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतृ॒ती॒येभ्यः॑। श॒ङ्खेभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥२२.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
तृतीयेभ्यः शङ्खेभ्यः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठतृतीयेभ्यः। शङ्खेभ्यः। स्वाहा ॥२२.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 22; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(तृतीयेभ्यः) तीसरी कोटि के (शङ्खेभ्यः) शङ्खों द्वारा साध्य रोगों के निवारण के लिए (स्वाहा) जाठराग्नि में आहुतियां हों॥ १०॥
टिप्पणी -
[शङ्खों से अभिप्राय है—शङ्खभस्मे। शङ्ख या शङ्खभस्म, तत्साध्य रोगों का उपलक्षक है। मन्त्र ८-१० में तीन प्रकार के शङ्ख कहें हैं। प्रत्येक प्रकार के शङ्खों की भस्मों के गुण भिन्न-भिन्न हैं। (अथर्व० ४.१०.१) में शंख को “जातः विद्युतः ज्योतिषस्परि”, “हिरण्यजाः”, और “कृशनः” कहा है। यह पीतवर्ण शंख है, जैसे कि पीतवर्ण की कौड़ियां होती हैं। पीतवर्ण के कारण ही कविता में पीतवर्ण शंख को “विद्युत् की ज्योति से उत्पन्न हुआ”, “हिरण्य से उत्पन्न हुआ” तथा “कृशन” अर्थात् सुवर्णरूप कहा है। कृशनम्=हिरण्यनाम (निघं० १.२)। यह शंख प्रथम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ है। द्वितीय कोटि के शंख को “समुद्रजः” कहा है (अथर्व० ४.१०.४) अर्थात् समुद्र से पैदा हुआ। यह बड़े आकार का शुभ्रवर्ण का होता है। तृतीय कोटि के शंख को “सिन्धुत: पयभृित:” (अथर्व० ४.१०.४) कहा है, अर्थात् नदियों से प्राप्त हुआ। इस प्रकार के शंखों को “घोघा” कहते हैं। ये छोटे आकार के होते हैं। “हिरण्यजाः; कृशनः” को “विश्वभेषजः” कहा है (अथर्व० ४.१०.३)। “समुद्रज शंख” द्वारा राक्षसरूप और खा जानेवाले रोगों, अमीवा रोगों, अमति, तथा सदा कष्टप्रद रोगों पर विजय पाने का वर्णन है (अथर्व० ४.१०.२, ३)। तथा “कार्शन” शंख को आयुषे, वर्चसे, बलाय, दीर्घायुत्वाय, तथा शतशारदाय—रक्षार्थ बांधने का वर्णन हुआ है (अथर्व० ४.१०.७)। बांधने का अभिप्राय है—शंखभस्म का सेवन कर उस के प्रभाव को शरीर में स्थिर रखना, उस का अपव्यय न करना।]