अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 22/ मन्त्र 18
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - आसुर्यनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त
सर्वे॒भ्योऽङ्गि॑रोभ्यो विदग॒णेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसर्वे॑भ्यः। अङ्गि॑रःऽभ्यः। वि॒द॒ऽग॒णेभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥२२.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वेभ्योऽङ्गिरोभ्यो विदगणेभ्यः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठसर्वेभ्यः। अङ्गिरःऽभ्यः। विदऽगणेभ्यः। स्वाहा ॥२२.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 22; मन्त्र » 18
भाषार्थ -
(विदगणेभ्यः) विद्वानों के गणों अर्थात् (सर्वेभ्यः) सब (अङ्गिरोभ्यः) प्राणविद्या के आचार्यों के संस्मरण में (स्वाहा) आहुतियां हों।
टिप्पणी -
[विदगणेभ्यः, विद=विद्+कः कर्तरि। “इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः” (अष्टा० ३.१.१३५) अङ्गिरा का अभिप्राय है—प्राण (मन्त्र १ की व्याख्या देखो)। प्राणविद्या के जाननेवालों को प्राणाचार्य कहते हैं। अथर्ववेद में मुख्यरूप में आथर्वण विद्याओं और अङ्गिरस विद्याओं का वर्णन है। इसलिए अथर्ववेद को “अथर्वाङ्गिरसवेद” कहा जाता है। यथा—“यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्। सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखं स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेवः सः॥ [(अथर्व० १०.७.२०)।]