अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 22/ मन्त्र 3
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त
स॑प्तमाष्ट॒माभ्यां॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त॒म॒ऽअ॒ष्ट॒माभ्या॑म्। स्वाहा॑ ॥२२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्तमाष्टमाभ्यां स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठसप्तमऽअष्टमाभ्याम्। स्वाहा ॥२२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 22; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(सप्तमाष्टमाभ्याम्) सप्तम अर्थात् अहंकार, और अष्टम अर्थात् बुद्धि के स्वास्थ्य के लिए आहुतियाँ हों।
टिप्पणी -
[मन्त्र २ में मन को षष्ठ कहा है। मन की प्रकृति अहंकार है, इसलिए अहंकार सप्तम। और अहंकार की प्रकृति बुद्धि अष्टम है। मन अहंकार और बुद्धि अन्तःकरण है। अन्तःकरण के स्वस्थ और रुग्ण होने पर शरीर का स्वास्थ्य और रुग्णपन प्रायः होता है। इसलिए मन्त्र २ और ३ में अन्तःकरण के स्वास्थ्य के लिए आहुतियों का विधान किया है।]