अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 14
सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
उ॒क्ष्णो हि मे॒ पञ्च॑दश सा॒कं पच॑न्ति विंश॒तिम्। उ॒ताहम॑द्मि॒ पीव॒ इदु॒भा कु॒क्षी पृ॑णन्ति मे॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒क्ष्ण: । हि । पञ्च॑ऽदश । सा॒कम् । पच॑न्ति । विं॒श॒तिम् ॥ उ॒त । अ॒हम् । अ॒द्मि॒ । पीव॑: । उ॒भा । कु॒क्षी इति॑ । पृ॒ण॒न्ति॒ । मे॒ । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम्। उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठउक्ष्ण: । हि । पञ्चऽदश । साकम् । पचन्ति । विंशतिम् ॥ उत । अहम् । अद्मि । पीव: । उभा । कुक्षी इति । पृणन्ति । मे । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 14
भाषार्थ -
उपासक, या मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार, (मे) मुझ परमेश्वर के लिए, (पञ्चदश) १५ या (विंशतिम्) २० (उक्ष्णः) उक्षाओं का (साकम्) एक साथ (पचन्ति) परिपाक करते हैं। (उत) और (अहम्) मैं (अद्मि) उन्हें खा लेता हूँ, (इत्) जैसे कि (पीवः) मोटा या बलवान् पुरुष, (उभौ कुक्षी) भोजन द्वारा, अपने दोनों पेटों को भर लेता है, वैसे उपर्युक्त उपासक या मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार उक्षाओं द्वारा (मे) मुझे (पृणन्ति) तृप्त कर देते हैं। (विश्वस्मात्০) पूर्ववत्।
टिप्पणी -
[उक्षा का अभिप्राय है चित्त, जो कि भक्तिरस से आपूरित है। अन्तःकरण चतुष्टय जब भक्तिरस से भरा हुआ हो, तो उसका प्रभाव ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, तथा शरीर पर भी पड़ता है। जैसे कि निम्नलिखित मन्त्र में निर्दिष्ट है— यस्मै॒ हस्ता॑भ्यां॒ पादा॑भ्यां वा॒चा श्रोत्रे॑ण॒ चक्षु॑षा। यस्मै॑ दे॒वाः सदा॑ ब॒लिं प्र॒यच्छ॑न्ति॒ विमि॒तेमि॑तं स्क॒म्भं तं ब्रू॑हि कत॒मः स्वि॑दे॒व सः॥ अथर्व০ १०.७.३९॥ अर्थात् जिस सर्वाधार के लिए, देव-लोग, अपने हाथों द्वारा, पैरों द्वारा, वाणी द्वारा, श्रोत्र द्वारा, तथा चक्षु द्वारा सदा भक्ति की भेटें देते हैं, तथा जो परिमित जगत् में अपरिमित है, उसे “स्कम्भ” जानो, वह ही सर्वाधिक सुखस्वरूप है। इस मन्त्र के द्वारा ज्ञात होता है कि सच्चे भक्त की भक्ति उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग को भक्ति-प्रधान बना देती है। मन्त्र १४ का अभिप्राय भी उद्धृत मन्त्र के अभिप्राय जैसा है। चित्त में जब भक्तिरस परिपक्व हो जाता है, तब चित्त के भक्तिरस का प्रभाव समग्र शरीर पर हो जाता है। पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेंन्द्रियाँ, तथा पांच तन्मात्राएँ ये १५ तत्त्व एक-साथ मिलकर, जब परमेश्वर पर भक्तिरस सींचते हैं, तो ये १५ उक्षारूप हो जाते हैं, भक्तिरस के सिञ्चन में समर्थ हो जाते हैं। उक्षा=उक्षति सिञ्चतीति, (उणादि कोष १.१५९)। जब इन १५ में, शरीर के पांच स्थूलभूत मिला लिए जाएँ, तो ये सब २० उक्षा हो जाते हैं। “शीतोष्णसुखदुःख” पांच तन्मात्राओं की सत्ता के कारण होते हैं। यथा—“मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः” (गीता २.१४)। पञ्च तन्मत्राएँ जब भक्तिरस द्वारा आपूरित हो जाती हैं, तब धर्मकार्यों में—जो कि परमेश्वर के प्रसाद के निमित्त किये जाते हैं—भक्त शीतोष्ण तथा सुख-दुःख की परवाह नहीं करता। उभा कुक्षी=आमाशय तथा पक्वाशय; अथवा बैल जैसे अपने दोनों आमाशयों को भर लेता है। गौ आदि पशुओं के दो आमाशय होते हैं। पहिले एक आमाशय को वे भर लेते हैं, पीछे जुगाली करते हुए दूसरे आमाशय को वे भरते हैं।]