अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 126/ मन्त्र 17
सूक्त - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
न सेशे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते। सेदी॑शे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा क्थ्या॒ कपृ॒द्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठन । स: । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रो॒म॒शम् । नि॒ऽसेदुष॑: । विऽजृम्भ॑ते ॥ स: । इत् । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रम्ब॑ते । अ॒न्त॒रा । स॒क्थ्यो॑ । कपृ॑त् । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते। सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा क्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठन । स: । ईशे । यस्य । रोमशम् । निऽसेदुष: । विऽजृम्भते ॥ स: । इत् । ईशे । यस्य । रम्बते । अन्तरा । सक्थ्यो । कपृत् । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 17
भाषार्थ -
(सः) वह वृषाकपि (न ईशे) वर्षा का अधीश्वर नहीं, (निषेदुषः यस्य) एक स्थान में स्थित जिस वृषाकपि का (रोमशम्) लोमसमूह-सदृश रश्मिसमूह, (विजृम्भते) विशेषरूप में सर्वत्र विचरता है, अपितु (सः) वह इन्द्र अर्थात् विद्युत् (इत्) ही (ईशे) वर्षा की अधीश्वरी है (यस्य) जिसका कि (कपृत्) जल की पूर्ति करनेवाला मेघ (सक्थ्या) आकर्षण द्वारा परस्पर संसक्त द्युलोक और भूलोक के (अन्तरा) मध्य में अर्थात् अन्तरिक्ष में (रम्बते) गर्जता है।
टिप्पणी -
[यह वैज्ञानिक तथ्य है कि अन्तरिक्ष में वर्तमान मृदादि-कण जब विद्युत् द्वारा आविष्ट होते हैं, तब उन कणों पर वाष्पीभूत अन्तरिक्षस्थ जल-कण घनीभूत हो जाते हैं, तब भारी हो जाने के कारण वर्षारूप में पृथिवी पर गिरते है। सूर्य की गर्मी द्वारा तो पृथिवीस्थ जल वाष्पीभूत होकर अन्तरिक्ष में एकत्रित होता रहता है, तत्पश्चात मृदादि कणों में आविष्ट विद्युत् के कारण उन पर वाष्पीय जलकण घनीभूत होकर बरसते हैं। इसलिए उपर्युक्त दो मन्त्रों द्वारा यह निश्चित किया है कि वर्षा में इन्द्र और वृषाकपि दोनों कारण हैं।